अथर्ववेद में देह विज्ञान -Rati Saxena

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  • Опубліковано 7 лют 2025
  • 1- अथर्ववेद में अपने आसपास के पर्यावरण पर ध्यान केन्द्रित किया है। वे कामना करते रहे कि नदियाँ अच्छी तरह से बहें, हवा चले, पक्षी सुख रहें, दिन व रात सुखकारी बने रहें। ( अथर्व. 1.50.1, 7.69.1)
    2- तत्कालीन जन ने यह सत्य पहचान लिया था कि स्वास्थ्य मात्र रोगों की अनुपस्थिति नहीं होता,बल्कि कुपोषण, गरीबी, भुखमरी आदि भी रोगों का एक प्रकार है। अथर्ववेद में औषध या वनस्पति उत्पादन पर विशेष बल दिया गया है,कृषि के साथ वाणिज्य, अच्छा मकान आदि को भी महत्व दिया गया है
    3- अथर्ववेदीय मंत्रों का आज तक जो महत्व है उसका प्रमुख कारण उसका औषध विज्ञान है। इस काल में जितनी वनस्पतियों के गुणों को पहचाना गया, उतना शायद ही किसी अन्य काल में संभव हुआ होगा।
    4-दिव्य शक्तियों की स्तुति मात्र से रोग दूर नहीं हो सकते, औषधियों का प्रयोग भी तो आवश्यक है ।यूँ तो लोक औषधियों को पहचानता था, उनका प्रयोग भी करता था, पर साथ ही में वह उनके गुणों को बढा ने के लिए स्तुति भी करता था। यह एक मनोवैज्ञानिक उपाय है तथा वैज्ञानिक सत्य है। यह तो सिद्ध हो गया है कि वनस्पति में प्राण शक्ति होती है, अर्थात् जीवन होता है ।इस दृष्टि से वनस्पति अपने प्राण देकर प्राणी समुदाय की रक्षा करती है तो उस बलिदान को कैसे भुलाया जा सकता है ।इसी अथर्वेदीय जन उन औषधियों की भी स्तुति करता है। वह उसे समस्त वनस्पतियों में श्रेष्ठ मानते हुए रोगों से छुटकारे की प्रार्थना करता है2। जिस तरह नक्षत्रों में सोम श्रेष्ठ होता है, देवों में वरुण श्रेष्ठ है उसी तरह औषध भी सभी वनस्पतियों में श्रेष्ठ है 3। वे प्रार्थना करते हैं कि हे औषध! तुम देवी अरुन्धति के साथ मिल कर शान्ति प्रदायनी बनो जिससे हमारी गौशाला की गाएँ दुग्ध दायिनी बने और वीर पुरुष नीरोगी बनें 4।
    5-अथर्ववेद के दसवें काण्ड में एक सम्पूर्ण सूक्त है जिसमें मानव के अंग-प्रत्यंग का वर्णन है। यद्यपि पहली दृष्टि से ऐसा लगता है कि चिन्तक एक-एक अंग के निर्माण के लिए आश्चर्य प्रकट कर रहे हैं किन्तु ध्यान से देखने से प्रतीत होता है कि यह आश्चर्य अबोधपन का सूचक नहीं है, अपितु शरीर -विज्ञान के अध्ययन द्वारा सूक्ष्म तत्व सीख पाने के आल्हाद का सूचक है। वे तलवे से शुरु करके हर एक जोड़ के बारे में जानने की कोशिश करते हैं , इसके बाद माँस -पेशियों और धमनियों के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं। अन्ततः मस्तिष्क के विभिन्न अंग जैसे कपाल, ललाट, ककाटिका और हनु का का अध्ययन किया जाता है। अन्तः
    6- रोग का प्रभाव किसी अंग विशेष पर हो सकता है, किन्तु उसके मूल में अनेक समस्याएँ हो सकती हैं।
    अतः सर्वांग चिकित्सा में बीमारी का इलाज किसी एक अंग के आधार पर नहीं अपितु सभी अंगों के दोषों के आधार पर किया जाता है। अथर्ववेदीय चिकित्सा प्रणाली में इसी विधि को अपनाया जाता है। जैसे कि यक्ष्मा के इलाज के लिए हर अंग से यक्ष्मा दूर करने की प्रार्थना की जाती है।
    7-तत्कालीन समाज में औषधियों का ज्ञान व्यापक था, अधिकतर औषधियों को उनके नामों और गुणों सेपहचाना जाता था। सम्भवतः उनके नाम भी उनके गुणों के अनुरूप रखे जाते रहे होंगे।विभिन्न औषधियों का उत्पादन उनके उपयोग को दृष्टि में रख कर किया जाता होगा।कुछ मंत्रों में तो विभिन्न औषधियों के गुणों और नामों का इस तरह उल्लेख है जैसे कि चिकित्सा विद्या का शिक्षण किया जा रहा हो।
    8- पीडा व रोग निवारण के लिए दिव्यशक्तियों का आह्वान करने की प्रवृत्ति ऋग्वैदिक काल से प्रचलित थी।
    9-औषधियों के प्रभाव को बढाने के लिए एक और रीति भी प्रचलित थी ।जैसे किसी वन्ध्या स्त्री को गर्भधारण
    औषध दी जाती तो उस औषध की मंगल कामना भी की जाती ।ऋषि चिन्तक आशीष देतें हैं कि जिस तरह पृथिवी समस्त प्राणियों को जन्म देती है उसी तरह यह स्त्री भी गर्भधारण करे ,जिस तरह पृथिवी वनस्पतियों को जन्म देती है ,पर्वतों को धारण करती है और विस्तृत जगत का वहन करती है उसी तरह यह स्त्री भी गर्भ धारण करे और पुत्र को जन्म दे ।यथेयं पृतिवी मही भूतानां गर्भमादधे। एवा ते ध्रियतां गर्भो अऩु सूतुं सवितवे ।।अवे. 6.17.1.
    इसी तरह प्रसव से सम्बन्धित प्रकरण मिलता है। छह मन्त्रों के गुम्फ को देख कर ऐसा लगता है मानो कोई प्रसवासन्न नारी जटिल स्थिति से गुजर रही है ।भिषकगण उसके प्रसव को सरल बनाने के लिए पूरा प्रयत्न कर रहें हों । प्रत्येक मन्त्र प्रसव की एक-एक क्रिया की व्याख्या करता है । जैसे आसन्न प्रसवा नारी के अंग कोमल हो जाएँ ,चारों दिशाएँ व भूमि तथा सभी दिव्य शक्तियाँ गर्भ को सुरक्षित रखें .योनि का मुख खुल जाए और नारी हिम्मत से जन्म दे ।बालक के जन्म के बाद शीघ्रता से जरायु नीचे गिरे .कुमार व जरायु अलग-अलग हो जाएँ ।अन्तिम मन्त्र में बडे आलंकारिक रूप में वर्णन है कि जैसे वायु चलती है, मन चलता है.पक्षी उडतें हैं वैसे ही जरायु बालक से शीघ्रता से अलग हो जाए
    10- उपचार विधि के लिए सर्वाधिक आवश्यकता होती है स्वयं पर विश्वास ।जब तक चिकित्सक में आत्मविश्वास नहीं होगा तब तक उस की चिकित्सा भी सफल नहीं होगी ।अथर्वेदीय चिकित्सक इस आत्म विश्वास से भरपूर थे ।वे बडे विश्वास से कह सकते थे कि- मैं तुम्हे भाई-बान्धवों तथा माता-पिता के साथ वृद्धावस्था से दूर करता हूँ.तुम विश्वास पूर्वक भेषज का उपयोग करोयत् ते माता यत् ते पिता जाभिभ्र्राता च सर्जतः। प्रत्येक सेवस्व भेषजं जरदृÏष्ट कृणोमि त्वा ।।अवे .5.30.5. ।
    आज भीलोक में अच्छे चिकित्सक के लिए मुहावरा प्रसिद्ध है--उस चिकित्सक के हाथ में यश भिषक अपने हाथों पर भरोसा करता हुआ कहता है कि-अयं मे हस्तो भगवानयं मे भगवत्तरः।अयं मे विश्वभेषजोच्यं शिवाभि मर्शनः।। अथर्व. 4/13/6।।
    12-अथर्ववेदीय चिन्तक जब शरीर का अध्ययन करते थे तो वे शरीर के अंगों तक ही सीमित नहीं रह पाते थे। वे शीर्षस्थान के सात छिद्रो ( अथर्व. 10.2.1) के साथ मध्य भाग के दो छिद्रों (अथर्व. 10.2.6) को भी जानने की कोशिश करते थे।

КОМЕНТАРІ • 2

  • @brajeshsingh1632
    @brajeshsingh1632 3 роки тому +1

    बहुत उपयोगी आख्यान मैम🙏🙏

  • @ravi4mchs
    @ravi4mchs 3 роки тому

    Atyant gyanvardhak vyakhyan. Apka aabhar ma'am.🙏