14. निज में स्थिर रहो, पर का आश्रय तजो

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  • Опубліковано 29 гру 2024
  • भव-रोग
    (तर्ज : ज्ञान ही सुख है राग ही दुख है ...)
    ज्ञान में राग ना, ज्ञान में रोग ना,
    राग में रोग है, राग ही रोग है।। टेक ।।
    ज्ञानमय आत्मा, राग से शून्य है,
    ज्ञानमय आत्मा, रोग से है रहित।
    जिसको कहता तू मूरख बड़ा रोग है,
    वह तो पुद्गल की क्षणवर्ती पर्याय है ।। 1 ।।
    उसमें करता अहंकार-ममकार अरु,
    अपनी इच्छा के आधीन वर्तन चहे।
    किन्तु होती है परिणति तो स्वाधीन ही,
    अपने अनुकूल चाहे, यही रोग है।। 2।।
    अपनी इच्छा के प्रतिकूल होते अगर,
    छटपटाता दुखी होय रोता तभी।
    पुण्योदय से हो इच्छा के अनुकूल गर,
    कर्त्तापन का तू कर लेता अभिमान है ।। 3 ।।
    और अड़ जाता उसमें ही तन्मय हुआ,
    मेरे बिन कैसे होगा ये चिन्ता करे।
    पर में एकत्व-कर्तृत्व-ममत्व का,
    जो है व्यामोह वह ही महा रोग है।। 4 ।।
    काया के रोग की बहु चिकित्सा करे,
    परिणति का भव रोग जाना नहीं।
    इसलिये भव की संतति नहीं कम हुई,
    तूने निज को तो निज में पिछाना नहीं ।। 5 ।।
    भाग्य से वैद्य सच्चे हैं तुझको मिले,
    भेद-विज्ञान बूटी की औषधि है ही।
    उसका सेवन करो समता रस साथ में,
    रोग के नाश का ये ही शुभ योग है ।। 6।।
    रखना परहेज कुगुरु-कुदेवादि का,
    संगति करना जिनदेव-गुरु-शास्त्र की।
    इनकी आज्ञा के अनुसार निज को लखो,
    निज में स्थिर रहो, पर का आश्रय तजो ।। 7 ।।
    रचनाकार - आ. बाल ब्रह्मचारी श्री रवीन्द्रजी 'आत्मन्'
    source : सहज पाठ संग्रह (पेज - 97)

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