वीरगाथाकालीन साहित्य की विशेषता। आदिकाल की विशेषताएं।

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  • Опубліковано 20 вер 2024
  • #आदिकाल की विशेषताएं।
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    / @hindikipathshala01
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    #आश्रयदाताओं की अतिशयोक्ति परक प्रशंसा
    संकुचित राष्ट्रीयता
    #चारण। चारणी साहित्य।
    युद्ध का सजीव चित्रण
    वीर रस के साथ शृंगार का मिश्रण
    संदिग्ध रचनाएं
    क्षेपक की बहुलता
    ऐतिहासिकता का अभाव
    #डिंगल-पिंगल भाषा शैली
    स्त्रियों की आर्त पुकार
    अप्रतिम प्रकृति चित्रण
    नीतिपरकता एवं अंधविश्वास पर आघात
    युद्ध का कारण- जर, जोरू और जमीन
    काव्य रूप प्रबंध एवं मुक्तक
    भाषा -अपभ्रंश, डिंगल, पिंगल, मैथिली, खड़ी बोली
    शैली - गद्य, पद्य एवं मिश्रित
    विविध अलंकारों का सजग व्यवहार
    हिंदी साहित्य का वीरगाथा काल राजनैतिक दृष्टि से पतनोन्मुख, सामाजिक दृष्टि से अस्त-व्यस्त एवं धार्मिक दृष्टि से अस्त-व्यस्त था। आर्थिक परिस्थितियां का जहां तक सवाल है, आर्थिक प्रवाह अवरूद्ध था। -
    पृथ्वीराज रासो - चंदबरदाई
    परमाल रासो - जगनिक
    वीसलदेव रासो - नरपति नाल्ह
    विजयपाल रासो - नल्ल सिंह
    खुमान रासो - दलपत विजय
    हम्मीर रासो - शारंगधर
    जयचंद प्रकाश - भट्ट केदार
    जयमयंक जस चंद्रिका - मधुकर
    कीर्तिलता, कीर्ति पताका, पदावली - विद्यापति
    पहेलियां-मुकरियां - अमीर खुसरो
    आदिकाल या वीरगाथा काल के विविध नाम
    चारण काल- ग्रियर्सन
    आरंभिक काल - मिश्र बंधु
    आदिकाल/वीरगाथा काल - रामचन्द्र शुक्ल
    वीरकाल - विश्वनाथ मिश्र
    सिद्ध सामंत काल - राहुल सांकृत्यायन
    संधि-चारण काल - रामकुमार वर्मा
    बीजवपन काल - महावीर प्रसाद द्विवेदी
    अंधकार काल - कमल कुलश्रेष्ठ
    बाल्यावस्था/अंधकाल-रमाशंकर शुक्ल रसाल
    शून्यकाल- गणपतिचंद्र गुप्त
    आश्रयदाताओं की प्रशंसा -
    संदिग्ध रचनाओं का प्राचुर्य -
    रासो ग्रंथ परंपरा
    गार्सा द तासी - ‘राजसूय’, आचार्य शुक्ल - ‘रसायण’, नरोत्तम स्वामी - ‘रसिक’, चंद्रबली पाण्डेय, हजारी प्रसाद द्विवेदी, माताप्रसाद गुप्त, उदयनारायण तिवारी एवं शिवकुमार शर्मा #रासक’, रास, रासो
    वीरगाथात्मक काव्य-वीरगाथात्मक रासो काव्य की पांच प्रधान विशेषताएं हैं-
    आश्रयदाता राजाओं की अतिशयोक्ति पूर्ण प्रशंसा-
    व्यापक राष्ट्रीय भावना का अभाव या संकुचित राष्ट्रीयता-
    युद्ध का सजीव एवं सुंदर वर्णन-
    वीर रस के साथ शृंगार रस का मिश्रण -
    बारह बरिस लैं कुकुर जीएं, औ तेरह लैं जिऐं सियार।
    बरिस अठारह छत्री जीऐंए आगे जीवन को धिक्कार।
    वीरगाथाकालीन नारी की वीर भावना निम्न पक्त्तियों में लक्षित है-
    ‘भल्ला हुआ जूं मारिया बहिनी हमारा कंतु।
    लज्जेजं तु वयांसिअहु जै भग्गा धय एंतु।।
    ऐतिहासिकता का अभाव - रासो ग्रंथों में इतिहास की अपेक्षा कल्पना का बाहुल्य है। कवियों एवं उनके उतराधिकारी कवियों ने अपने आश्रयदाता राजाओं को चरित नायकों एवं उनकी कृत्यों को महत्त्वपूर्ण एवं रोचक बनाने के लिए पूर्ववर्ती के साथ-साथ परवर्ती प्रसिद्ध ऐतिहासिक वीरों से युद्ध करते दिखाया है, जो संभव नहीं है। इतिहास की कसौटी पर इनका वर्णन खरा नहीं उतरता। इनके द्वारा प्रयुक्त संवत् एवं तिथियां ऐतिहासिक तिथियों से मेल नहीं खाती हैं। इन कवियों ने अतिशयोक्ति पूर्ण प्रशंसा एवं कल्पना के कारण इतिहास का गला घोंट दिया है।
    संदिग्ध रचनाएं - इस काल में उपलब्ध होने वाली प्रायः अधिकांश रचनाएं ऐतिहासिकता, चरित नायकों के अशियोक्ति परक अयथार्थवादी वर्णन,
    प्रक्षिप्त अंश का बाहुल्य-
    युद्ध का मूल कारण कनक, कामिनी और भूमि -
    स्त्रियों की दयनीय स्थिति-
    अस्त्रीय जनम काइं दीधउ महेस।
    अवर जनम थारइ घणा रे नरेस, रानि न सिरजीय रोझडी।
    घणह न सिरजीय धउलीय गाइ, बनषंड काली कोइली।
    हउं बइसंती अंबा नइ चंपा की डाल। भषती द्राष बीजोरडी।
    इणि दुष झूरइ अबला जी बाल।
    प्रकृति चित्रण वीरगाथाकालीन साहित्य में प्रकृति चित्रण के तीन रूप मिलते हैं- आलंबन, उद्दीपन तथा नाम परिगणन।
    भाषा के विविध रूप- आदिकालीन साहित्य में पांच भाषाओं में रचनाएं मिलती हैं, धर्मपरक साहित्य सिद्धों एवं जैनियों एवं की भाषा अपभ्रंश है। विद्यापति
    #कीर्तिलता और कीर्तिपताका।
    ‘देसिल बअना सब्ब जन मीठा, तें तैसन जंपओ अवहट्ठा।’ हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि विद्यापति की पदावली की भाषा मैथिली है।
    वीरगाथाओं की भाषा डिंगल और पिंगल है।
    अपभ्रंश मिश्रित साहित्यिक भाषा ब्रजभाषा पिंगल नाम से पुकारी जाती थी। ब्रजभाषा रूपों से प्रभावित पिंगल का प्रयोग वीरगीति काव्यों एवं शृंगारिक रचनाओं में हुआ है। चौथी भाषा अमीर खुसरो की रचनाओं में हिंदुई या हिंदवी मिलती है जिसे आजकल खड़ी बोली हिंदी कहा जाता है। उस समय तक यह नागरिक समाज की सामान्य बोलचाल की भाषा बन रही थी तत्कालीन इस जन भाषा के वास्तविक रूप का दर्शन खुसरो की पहेलियों, मुकरियों एवं दो सुखने में मिलता है। इस काल के कवियों में संस्कृत के तत्सम-तद्भव एवं अरबी और फारसी के प्रयोग मिलते हैं
    काव्य रूप एवं शैली -रासो कालीन रचनाएं मुक्तक एवं प्रबंध दोनों रूपों में मिलती है। मुक्तक काव्य का प्राचीन उपलब्ध ग्रंथ बीसलदेव रासो है तथा प्रबंध काव्य का प्राचीन उपलब्ध ग्रंथ पृथ्वीराज रासो है।
    #हिंदी का प्रथम प्रबंधात्मक महाकाव्य

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