उस छाँव को तरसोगे तुम | Sadu | Climate change, Global Warming, Environment day, Coronavirus

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  • Опубліковано 29 сер 2024
  • #WorldEnvironmentDay #Sadu
    Written and conceived by Sadasivan KM Nambisan (SADU)
    Coronavirus is just a start…. Of the catastrophe, Well! I'm not here to talk about politics, films, economy, religion or to entertain you in any way either..coz these topics wud matter only if this planet Exists tomorrow.
    Friends, We are deliberately digging graves for the next generation.
    Is the temperature soaring, have the clouds disappeared, are u neck down in floods, you don't have water to drink, there is no water in the rivers, there is no forest left, it's you to be blamed
    we literally don't DESERVE this PLANET,
    MAN is the biggest threat and Danger to this earth.
    On this ENVIRONMENT DAY, Today I pray for the well being of this world. We better understand the reality at the earliest. It’s not a day to celebrate but regret what we humans have done to the nature and these barbaric act against nature and animals.
    मेरे लिखे हुए कुछ पंक्तियाँ इस धरती को समर्पित करता हूँ
    उस छाँव को तरसोगे तुम
    ये कैसी भूख है तेरी , जो कभी मिटती ही नहीं
    ये कैसी प्यास है तेरी, जो कभी बुझती ही नहीं
    चूसकर सबकुछ और उम्मीद करते हो
    छीनकर सबकुछ और सब्र चाहते हो
    नोचकर अमन चैन , बेफ़िक्र कैसे सो सकते हो
    तोड़कर,मरोड़कर, खोदकर न जाने कैसे
    ज़ुल्म ढाए तुमने धरती पर ।
    इन सागौन के सोफ़े,खाट और दीवान
    पर कई कई जंगल क़ुर्बान हो गए,
    निगल गए तुम उन बेबस जानवरों को
    और उनकी खाल ओढ़कर इतरा गए
    हाँ मैं उसी कुदरत की बात कर रहा हूँ
    हाँ उन बेज़ुबान जानवरों की बात कर रहा हूँ
    गगनचुंबी इमारतें , घर नहीं बन सकती
    धुँआ फूँकती चिमनियाँ, बहार नहीं ला सकती
    चंद काग़ज़ के टुकड़े तुम्हें अमीर नहीं बनाएँगीं
    इन हवाई सैरों से तुम बाज नहीं बन पाओगे
    अरे जाहिलों, गँवारों
    सरफिरों , जल्लादों
    देखो तो मौत तुम्हारे सर पर मंडरा रही है
    सहमी है कायनात , धरती ठिठुर रही है
    सुन सकता हूँ उसकी फुँकार,
    जिसकी दहाड़ ने विचलित कर दिया है मुझे
    अरे क्यों नहीं होंगे हिम स्खलन
    आग क्यों न गिरेगी आसमान से
    समन्दर तटबंध तोड़ घुसेंगीं शहरों में
    क्यूँ नहीं काँपेंगी ये ज़मीन
    उस छाँव को तरसोगे तुम
    एक एक साँस के लिए होगे मुहताज
    इत्मीनान का सबब कैसे जब
    इंसान हैवानियत पर उतर जाए
    प्रलय तो मात्र एक शब्द है ,
    विपदा , महामारी और विनाश निश्चित है,
    वो तेरे हाथों में कब है
    तेरा अहंकार ही सुपुर्द ए ख़ाक करेगा
    इंसानियत के उड़ जाएँगे चीथड़े, उड़ने भी चाहिए
    ज़र्रे हो तुम यूँही बिखर जाओगे
    कब्र तेरा यक़ीनन , नहीं फाँद पाओगे
    तब बजाना टुनटुना तुम अपने खोखले ऐब का
    अपनी नक़ली ख़ुदगर्ज़ी का
    उलझ चुका तू अपने ही बनाए बंदिशों में
    डूब चला है तू अपने ही खोदे बवंडर में
    माफ़ी माँग लें अब भी वक़्त है, सुधर जा रे ए इंसान
    बख्श देगा वो अब भी वक़्त है, संभल जा रे ए इंसान
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