वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का कोई वजूद नहीं था। वैदिक काल में सामाजिक बंटवारा धन आधारित न होकर जनजाति, कर्म आधारित था। वैदिक काल के बाद धर्मशास्त्र में वर्ण व्यवस्था का विस्तार से वर्णन किया गया है। उत्तर वैदिक काल के बाद वर्ण व्यवस्था कर्म आधारित न होकर जन्म आधारित हो गयी।
चतुर् वर्ण मया श्रष्टम। गुण कर्म विभागसः।। -गीता। गीता में में स्वयं श्री कृष्ण कहते है- "मैने ही चार वर्ण की रचना गुण और कर्म के आधार पर की है।" अर्थात जिसके जैसे गुण और जिसके जैसे कर्म होंगे वैसा ही उसका वर्ण होगा जैसे ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य अथवा शूद्र। वर्ण का अर्थ जाति नही है, वर्ण तो व्यक्ति की विशेषता है। बौद्धिक कर्म करने व्यक्ति जैसे अध्यन, अध्यापन, चिंतन, विचार, समाज की नीति निर्धारण, दिशानिर्देशन, सामाजिक व्यवस्थापन और मार्गदर्शन। शुद्ध, पवित्र, सुचितापूर्ण, संयमी जीवनयापन। प्राणीमात्र के प्रति प्रेम, दया, करुणा, सहष्णुता, छमा धर्म को धारण करने वाला। शतोगुण प्रधान, तपस्वी, संयमी। उद्दात भाव और विश्व कल्याण भाव से युक्त व्यक्ति को ब्राह्मण कहा जाता था। इसी तरह शौर्य, साहस, निर्भीक, उत्साही, दृढ़ संकल्प से युक्त ओजश्वी, पराक्रमी, सहनशील, शक्ति-सामर्थ्यवान एवं देश, जन, समाज और शरणागत की रक्षा करनेवाला, रजोगुण प्रधान वीर व्यक्ति को क्षत्रीय कहा जाता था। वणिक, व्यापर बुद्धिवाला, परिश्रमी, उद्यमी रजो और तमो गुण प्रधान व्यक्ति को वैश्य कहा जाता था। तथा सेवाभावी और तमोगुणी व्यक्ति को शूद्र कहा जाता था। ये सभी वैदिक कालीन आर्य समाज और आर्य व्यवस्था के अंग थे। और ये व्यवस्था न सिर्फ भारत बल्कि संसार के सभी देश, काल और मानव समाज की आवश्यक और नैसर्गिक व्यवस्था है, सदा से ही रही है और आज भी है। ये चार प्रकार के लोग अर्थात बुद्धिजीवी, अध्यापक, चिंतक, दार्शनिक, विचारक यानी ब्राह्मण और योद्धा, सैनिक यानी क्षत्रीय एवं व्यापारी, किसान यानी वैश्य अंत में सेवक यानी शूद्र ये चार प्रकार के लोग सदा से ही विश्व के हर देश और हर समाज का अपरिहार्य हिस्सा रहे हैं, और आज भी हैं। संसार में किस देश, किस समाज और किस काल में ये चार प्रकार के लोग न थे? ये सदा थे आज भी हैं और सदा रहेंगे। बस हर स्थान, देश, काल में इनके नाम अलग रहे है। इसी तरह वैदिक आर्य काल में भी ये वर्ण व्यवस्था तो व्यवसाय, अभिरुचि, योग्यता, प्रकृति, गुण और मनुष्य स्वभाव की विशेषताओं पर आधारित थी न कि जन्म पर। शूद्र ब्राह्मण हो सकता था और ब्राह्मण शूद्र। क्षत्रीय विस्वामित्र ब्राह्मण बन गए, शूद्र बाल्मीकि ब्राह्मण बन गए। ऐसे सैकड़ो प्रमाण हैं। जब लोगों ने अपना वर्ण परिवर्तन किया। और एक ही घर में, एक ही परिवार में चारों वर्ण के लोग होते थे। एक भाई ब्राह्मण, दूसरा क्षत्रीय तो तीसरा शूद्र। ऋषि अगस्त्य और अत्रि की पत्नीयां क्षत्रिय थीं। ऋग वेद में एक मंत्र आता है जिससे प्रकट होता है कि, एक ही परिवार में अलग अलग वर्णों के लोग रहते थे। वेद ऋचाओं कि रचनाएं अलग अलग ऋषियों ने की हैं जिनमें सूद्र और मैत्रेय तथा गार्गेय नामक इस्त्रियां भी थीं। जाती और कुछ नहीं बल्कि व्यवसाय विशेष से सम्बंधित लोगों का विशेषण मात्र थी, जैसे लकड़ी का कार्य करने वाला काष्टकार,(बड़ाई) मिट्टी के घड़ा बनाने वाला कुंभकार(कुम्हार), स्वर्ण का, तांबे का, लोहे का, चमड़े का कार्य करने वाला क्रमशः स्वर्णकार(सुनार), ताम्रकार, लोहकार (लुहार), चर्मकार (चमार) इत्यादि। इनके पुत्र भी इनका ही पेशा अपनाते इसलिए एक नितांत स्वभाविक प्रक्रिया के तहत ये वंशानुगत हो गईं। ये तो बाद में जाकर ये व्यवस्था जाति व्यवस्था में परिवर्तित हुई यानी वंशानुगत हुई। जैसे आज राजनेता का बच्चा नेता, व्यवसायी का व्यवसायी, बन जाता है। आगे जाकर इसी आर्य वैदिक समाज को हिन्दू समाज और इनके देश को हिंदुस्तान कहा गया और ये शब्द भी हमारे नहीं है बल्कि पारसियों और विदेशियों ने हमारा यही संबोधन किया। हिन्दू शब्द हमारी पहचान बनी। और हमारे धार्मिक विश्वाश को हिन्दू धर्म कहा जाने लगा, जो कि भिन्न भिन्न है, जैसे शैव, शाक्त, वैष्णव, एक ईश्वरवादी, बहुदेववादी, साकार अथवा निराकारी उपासक, बौद्ध, जैन यहां तक कि चार्वाक नास्तिकवादी। सभी जो आज भारतीय कहा जाता है उसे मध्यकाल में हिन्दू कहा जाता था। हिन्दू अर्थात भारतीय। कोई मूल निवासी नहीं है न कोई विदेशी सभी आर्य है सभी हिन्दू हैं, यहाँ तक कि भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश के मुसलमान और ईसाई भी हिन्दू ही है, आर्य वंश से हैं। ये भी विदेशी आक्रांता, लुटेरे अरबी, गजनवी, गौरी, मुगल मुसलमानों या यूरोपीय ईसाइयों के साथ हमारे देश नहीं आये थे बल्कि हममें से ही है, जो बल और छल द्वारा ईसाइयत और इस्लाम द्वारा गुलामी में चले गए। भारत माँ के चार सपूत। ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य, शूद।
वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का कोई वजूद नहीं था। वैदिक काल में सामाजिक बंटवारा धन आधारित न होकर जनजाति, कर्म आधारित था। वैदिक काल के बाद धर्मशास्त्र में वर्ण व्यवस्था का विस्तार से वर्णन किया गया है। उत्तर वैदिक काल के बाद वर्ण व्यवस्था कर्म आधारित न होकर जन्म आधारित हो गयी।
आप एक प्रोपेगेंडा वादी यूट्यूबर हो, और आप पुराणों की बात बता रहे हो, हिंदू धर्म में जो जाति व्यवस्था है वास्तविकता में वह वर्ण है कर्म के आधार पर दी जाती है इसीलिए जिसको आज जाति कहा जाता है उन वर्ण का एक अपना महत्व है ब्राह्मण का अर्थ होता है ज्ञानी क्षत्रिय का अर्थ होता है रक्षक शुद्र का अर्थ होता है सेवा करने वाला वैश्य का अर्थ होता है पोषण करने वाला और यह सब कर्मों के आधार पर किसी व्यक्ति को दिया जाता था ब्रह्मा जी के मुख से ब्राह्मण निकले, और भुजा से क्षत्रिय निकले इसका भी अपना एक अर्थ है, पुराणों में जो बात कही गई है वह प्रतीकात्मक रूप से कही गई है, ब्राह्मण का ब्रह्मा के मुख से निकलने का अर्थ है ज्ञान, क्योंकि ज्ञान मुख से ही दिया जाता है क्षत्रिय का भुजा से निकलने का अर्थ है शक्ति, क्योंकि भुजाओं से अर्थ था शक्ति ऐसी ही अलग-अलग वर्ण के अलग-अलग अपने अलग-अलग अर्थ है, जो कर्म के आधार पर दिया जाता है हिंदू शास्त्रों में ऐसा कहीं नहीं कहा गया की जन्म से किसी को कोई वर्ण मिलता है
Jai jai shree ram ji
Jai jai shree krishna ji
Hello anurag suryawanshi ji
Bro cast system kahi nae hona chahiya
जाति प्रथा सनातन धर्म में पहले थी ही नहीं, यह जो जाति प्रथा लोग समझते हैं,यह वर्ण था जो कर्म के आधार पर दिया जाता था
जाति प्रथा पाखंडी ब्राह्मणवादी द्वारा बनाई गई है और मोहन भागवत का बयान तो सुना होगा और आर्य समाज महर्षि दयानंद सरस्वती ग्रुप
से हूं
वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का कोई वजूद नहीं था। वैदिक काल में सामाजिक बंटवारा धन आधारित न होकर जनजाति, कर्म आधारित था। वैदिक काल के बाद धर्मशास्त्र में वर्ण व्यवस्था का विस्तार से वर्णन किया गया है। उत्तर वैदिक काल के बाद वर्ण व्यवस्था कर्म आधारित न होकर जन्म आधारित हो गयी।
चतुर् वर्ण मया श्रष्टम।
गुण कर्म विभागसः।।
-गीता।
गीता में में स्वयं श्री कृष्ण कहते है-
"मैने ही चार वर्ण की रचना गुण और कर्म के आधार पर की है।"
अर्थात जिसके जैसे गुण और जिसके जैसे कर्म होंगे वैसा ही उसका वर्ण होगा जैसे ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य अथवा शूद्र। वर्ण का अर्थ जाति नही है, वर्ण तो व्यक्ति की विशेषता है।
बौद्धिक कर्म करने व्यक्ति जैसे अध्यन, अध्यापन, चिंतन, विचार, समाज की नीति निर्धारण, दिशानिर्देशन, सामाजिक व्यवस्थापन और मार्गदर्शन। शुद्ध, पवित्र, सुचितापूर्ण, संयमी जीवनयापन। प्राणीमात्र के प्रति प्रेम, दया, करुणा, सहष्णुता, छमा धर्म को धारण करने वाला। शतोगुण प्रधान, तपस्वी, संयमी। उद्दात भाव और विश्व कल्याण भाव से युक्त व्यक्ति को ब्राह्मण कहा जाता था।
इसी तरह शौर्य, साहस, निर्भीक, उत्साही, दृढ़ संकल्प से युक्त ओजश्वी, पराक्रमी, सहनशील, शक्ति-सामर्थ्यवान एवं देश, जन, समाज और शरणागत की रक्षा करनेवाला, रजोगुण प्रधान वीर व्यक्ति को क्षत्रीय कहा जाता था।
वणिक, व्यापर बुद्धिवाला, परिश्रमी, उद्यमी रजो और तमो गुण प्रधान व्यक्ति को वैश्य कहा जाता था।
तथा सेवाभावी और तमोगुणी व्यक्ति को शूद्र कहा जाता था।
ये सभी वैदिक कालीन आर्य समाज और आर्य व्यवस्था के अंग थे। और ये व्यवस्था न सिर्फ भारत बल्कि संसार के सभी देश, काल और मानव समाज की आवश्यक और नैसर्गिक व्यवस्था है, सदा से ही रही है और आज भी है।
ये चार प्रकार के लोग अर्थात बुद्धिजीवी, अध्यापक, चिंतक, दार्शनिक, विचारक यानी ब्राह्मण और योद्धा, सैनिक यानी क्षत्रीय एवं व्यापारी, किसान यानी वैश्य अंत में सेवक यानी शूद्र ये चार प्रकार के लोग सदा से ही विश्व के हर देश और हर समाज का अपरिहार्य हिस्सा रहे हैं, और आज भी हैं। संसार में किस देश, किस समाज और किस काल में ये चार प्रकार के लोग न थे? ये सदा थे आज भी हैं और सदा रहेंगे। बस हर स्थान, देश, काल में इनके नाम अलग रहे है।
इसी तरह वैदिक आर्य काल में भी ये वर्ण व्यवस्था तो व्यवसाय, अभिरुचि, योग्यता, प्रकृति, गुण और मनुष्य स्वभाव की विशेषताओं पर आधारित थी न कि जन्म पर। शूद्र ब्राह्मण हो सकता था और ब्राह्मण शूद्र।
क्षत्रीय विस्वामित्र ब्राह्मण बन गए, शूद्र बाल्मीकि ब्राह्मण बन गए। ऐसे सैकड़ो प्रमाण हैं। जब लोगों ने अपना वर्ण परिवर्तन किया। और एक ही घर में, एक ही परिवार में चारों वर्ण के लोग होते थे। एक भाई ब्राह्मण, दूसरा क्षत्रीय तो तीसरा शूद्र।
ऋषि अगस्त्य और अत्रि की पत्नीयां क्षत्रिय थीं। ऋग वेद में एक मंत्र आता है जिससे प्रकट होता है कि, एक ही परिवार में अलग अलग वर्णों के लोग रहते थे। वेद ऋचाओं कि रचनाएं अलग अलग ऋषियों ने की हैं जिनमें सूद्र और मैत्रेय तथा गार्गेय नामक इस्त्रियां भी थीं।
जाती और कुछ नहीं बल्कि व्यवसाय विशेष से सम्बंधित लोगों का विशेषण मात्र थी, जैसे लकड़ी का कार्य करने वाला काष्टकार,(बड़ाई) मिट्टी के घड़ा बनाने वाला कुंभकार(कुम्हार), स्वर्ण का, तांबे का, लोहे का, चमड़े का कार्य करने वाला क्रमशः स्वर्णकार(सुनार), ताम्रकार, लोहकार (लुहार), चर्मकार (चमार) इत्यादि। इनके पुत्र भी इनका ही पेशा अपनाते इसलिए एक नितांत स्वभाविक प्रक्रिया के तहत ये वंशानुगत हो गईं।
ये तो बाद में जाकर ये व्यवस्था जाति व्यवस्था में परिवर्तित हुई यानी वंशानुगत हुई। जैसे आज राजनेता का बच्चा नेता, व्यवसायी का व्यवसायी, बन जाता है।
आगे जाकर इसी आर्य वैदिक समाज को हिन्दू समाज और इनके देश को हिंदुस्तान कहा गया और ये शब्द भी हमारे नहीं है बल्कि पारसियों और विदेशियों ने हमारा यही संबोधन किया। हिन्दू शब्द हमारी पहचान बनी। और हमारे धार्मिक विश्वाश को हिन्दू धर्म कहा जाने लगा, जो कि भिन्न भिन्न है, जैसे शैव, शाक्त, वैष्णव, एक ईश्वरवादी, बहुदेववादी, साकार अथवा निराकारी उपासक, बौद्ध, जैन यहां तक कि चार्वाक नास्तिकवादी। सभी जो आज भारतीय कहा जाता है उसे मध्यकाल में हिन्दू कहा जाता था। हिन्दू अर्थात भारतीय।
कोई मूल निवासी नहीं है न कोई विदेशी सभी आर्य है सभी हिन्दू हैं, यहाँ तक कि भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश के मुसलमान और ईसाई भी हिन्दू ही है, आर्य वंश से हैं। ये भी विदेशी आक्रांता, लुटेरे अरबी, गजनवी, गौरी, मुगल मुसलमानों या यूरोपीय ईसाइयों के साथ हमारे देश नहीं आये थे बल्कि हममें से ही है, जो बल और छल द्वारा ईसाइयत और इस्लाम द्वारा गुलामी में चले गए।
भारत माँ के चार सपूत।
ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य, शूद।
Bodhh dharm me jatiya nahi hoti h
Or church me koi bhi kisi bhi aa jaa sakta h lekin mandiro me nahi isliye mandiro ka bhagwan paapi neech hai
Yadav Caste Hindu hain Ya Muslim
Hindu
Janral hindu
वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का कोई वजूद नहीं था। वैदिक काल में सामाजिक बंटवारा धन आधारित न होकर जनजाति, कर्म आधारित था। वैदिक काल के बाद धर्मशास्त्र में वर्ण व्यवस्था का विस्तार से वर्णन किया गया है। उत्तर वैदिक काल के बाद वर्ण व्यवस्था कर्म आधारित न होकर जन्म आधारित हो गयी।
Islam mai jaati nhi...shia sunni vahabi ahmediya aisa prblm hai
आप एक प्रोपेगेंडा वादी यूट्यूबर हो, और आप पुराणों की बात बता रहे हो, हिंदू धर्म में जो जाति व्यवस्था है वास्तविकता में वह वर्ण है
कर्म के आधार पर दी जाती है
इसीलिए जिसको आज जाति कहा जाता है उन वर्ण का एक अपना महत्व है
ब्राह्मण का अर्थ होता है ज्ञानी
क्षत्रिय का अर्थ होता है रक्षक
शुद्र का अर्थ होता है सेवा करने वाला
वैश्य का अर्थ होता है पोषण करने वाला
और यह सब कर्मों के आधार पर किसी व्यक्ति को दिया जाता था
ब्रह्मा जी के मुख से ब्राह्मण निकले, और भुजा से क्षत्रिय निकले
इसका भी अपना एक अर्थ है,
पुराणों में जो बात कही गई है वह प्रतीकात्मक रूप से कही गई है,
ब्राह्मण का ब्रह्मा के मुख से निकलने का अर्थ है ज्ञान, क्योंकि ज्ञान मुख से ही दिया जाता है
क्षत्रिय का भुजा से निकलने का अर्थ है शक्ति, क्योंकि भुजाओं से अर्थ था शक्ति
ऐसी ही अलग-अलग वर्ण के अलग-अलग अपने अलग-अलग अर्थ है,
जो कर्म के आधार पर दिया जाता है
हिंदू शास्त्रों में ऐसा कहीं नहीं कहा गया की जन्म से किसी को कोई वर्ण मिलता है