Shri Ramchandra Kripalu Bhajman | श्री रामचंद्र कृपालु भजमन by Kavi Pradeep Kumar
Вставка
- Опубліковано 21 гру 2024
- 𝐒𝐡𝐫𝐢 𝐑𝐚𝐦𝐜𝐡𝐚𝐧𝐝𝐫𝐚 𝐊𝐫𝐢𝐩𝐚𝐥𝐮 𝐁𝐡𝐚𝐣𝐦𝐚𝐧 | श्री रामचंद्र कृपालु भजमन 𝐛𝐲 𝐊𝐚𝐯𝐢 𝐏𝐫𝐚𝐝𝐞𝐞𝐩 𝐊𝐮𝐦𝐚𝐫
𝐖𝐫𝐢𝐭𝐭𝐞𝐧 𝐢𝐧 , in a mix of Sanskrit (संस्कृत) and Awadhi (अवधी) languages 𝐋𝐚𝐧𝐠𝐮𝐚𝐠𝐞 𝐛𝐲 𝐆𝐨𝐬𝐰𝐚𝐦𝐢 𝐓𝐮𝐥𝐬𝐢𝐝𝐚𝐬 (संत गोस्वामी तुलसीदास)
संस्कृत भाषा
॥ श्रीरामचन्द्र कृपालु ॥
श्रीरामचन्द्र कृपालु भजमन हरणभवभयदारुणं। नवकंजलोचन कंजमुख करकंज पदकंजारुणं ॥१॥
अर्थ: हे मन कृपालु श्रीरामचन्द्रजी का भजन कर। वे संसार के जन्म-मरण रूपी दारुण भय को दूर करने वाले हैं। उनके नेत्र नव-विकसित कमल के समान हैं। मुख-हाथ और चरण भी लालकमल के सदृश हैं ॥१॥
कन्दर्प अगणित अमित छवि नवनीलनीरदसुन्दरं। पटपीतमानहु तडित रूचिशुचि नौमिजनकसुतावरं ॥२॥
अर्थ: उनके सौन्दर्य की छ्टा अगणित कामदेवों से बढ़कर है। उनके शरीर का नवीन नील-सजल मेघ के जैसा सुन्दर वर्ण है। पीताम्बर मेघरूप शरीर मानो बिजली के समान चमक रहा है। ऐसे पावनरूप जानकीपति श्रीरामजी को मैं नमस्कार करता हूँ ॥२॥
भजदीनबन्धु दिनेश दानवदैत्यवंशनिकन्दनं। रघुनन्द आनन्दकन्द कोशलचन्द्र दशरथनन्दनं ॥३॥
अर्थ: हे मन दीनों के बन्धु, सूर्य के समान तेजस्वी, दानव और दैत्यों के वंश का समूल नाश करने वाले, आनन्दकन्द कोशल-देशरूपी आकाश में निर्मल चन्द्रमा के समान दशरथनन्दन श्रीराम का भजन कर ॥३॥
शिरमुकुटकुण्डल तिलकचारू उदारुअंगविभूषणं। आजानुभुज शरचापधर संग्रामजितखरदूषणं ॥४॥
अर्थ: जिनके मस्तक पर रत्नजड़ित मुकुट, कानों में कुण्डल भाल पर तिलक, और प्रत्येक अंग मे सुन्दर आभूषण सुशोभित हो रहे हैं। जिनकी भुजाएँ घुटनों तक लम्बी हैं। जो धनुष-बाण लिये हुए हैं, जिन्होनें संग्राम में खर-दूषण को जीत लिया है ॥४॥
इति वदति तुलसीदास शङकरशेषमुनिमनरंजनं। ममहृदयकंजनिवासकुरु कामादिखलदलगञजनं ॥५॥
अर्थ: जो शिव, शेष और मुनियों के मन को प्रसन्न करने वाले और काम, क्रोध, लोभादि शत्रुओं का नाश करने वाले हैं, तुलसीदास प्रार्थना करते हैं कि वे श्रीरघुनाथजी मेरे हृदय कमल में सदा निवास करें ॥५॥
मनु जाहि राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुन्दर सावरो। करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो ॥६॥
अर्थ: जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से सुन्दर साँवला वर (श्रीरामन्द्रजी) तुमको मिलेगा। वह जो दया का खजाना और सुजान (सर्वज्ञ) है, तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है ॥६॥
एही भाँति गौरी असीस सुनी सिय सहित हिय हरषींअली। तुलसी भवानी पूजी पुनि-पुनि मुदित मन मन्दिर चली ॥७॥
अर्थ: इस प्रकार श्रीगौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सभी सखियाँ हृदय मे हर्षित हुईं। तुलसीदासजी कहते हैं, भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चलीं ॥७॥
अवधी भाषा
॥सोरठा॥
जानी गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि। मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ।
अर्थ: गौरीजी को अनुकूल जानकर सीताजी के हृदय में जो हर्ष हुआ वह कहा नही जा सकता। सुन्दर मंगलों के मूल उनके बाँये अंग फड़कने लगे ॥८॥