हरि मिलन 〰️🌼🌼〰️ सबरी को आश्रम सौंपकर महर्षी मतंग जब देवलोक जाने लगे तब सबरी भी साथ जाने की जिद करने लगी। सबरी की उम्र दस वर्ष थी। वो महर्षि मतंग का हाथ पकड़ रोने लगी महर्षि सबरी को रोते देख व्याकुल हो उठे! सबरी को समझाया "पुत्री इस आश्रम में भगवान आएंगे यहां प्रतीक्षा करो!" अबोध सबरी इतना अवश्य जानती थी कि गुरु का वाक्य सत्य होकर रहेगा! उसने फिर पूछा "कब आएंगे? महर्षि मतंग त्रिकालदर्शी थे वे भूत भविष्य सब जानते थे वे ब्रह्मर्षि थे। महर्षि सबरी के आगे घुटनों के बल बैठ गए, सबरी को नमन किया आसपास उपस्थित सभी ऋषिगण असमंजस में डूब गए, ये उलट कैसे हुआ! गुरु यहां शिष्य को नमन करे! ये कैसे हुआ? महर्षि के तेज के आगे कोई बोल न सका! महर्षि मतंग बोले "पुत्री अभी उनका जन्म नही हुआ!" अभी दसरथजी का लग्न भी नही हुआ! उनका कौशल्या से विवाह होगा! फिर भगवान की लम्बी प्रतीक्षा होगी फिर दसरथजी का विवाह सुमित्रा से होगा ! फिर प्रतीक्षा! फिर उनका विवाह कैकई से होगा फिर प्रतीक्षा! फिर वो जन्म लेंगे! फिर उनका विवाह माता जानकी से होगा! फिर उन्हें 14 वर्ष वनवास होगा और फिर वनवास के आखिरी वर्ष माता जानकी का हरण होगा तब उनकी खोज में वे यहां आएंगे! तुम उन्हें कहना "आप सुग्रीव से मित्रता कीजिये उसे आतताई बाली के संताप से मुक्त कीजिये आपका अभिष्ट सिद्ध होगा! और आप रावण पर अवश्य विजय प्राप्त करेंगे!" सबरी एक क्षण किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई! अबोध सबरी इतनी लंबी प्रतीक्षा के समय को माप भी नही पाई! वह फिर अधीर होकर पूछने लगी "इतनी लम्बी प्रतीक्षा कैसे पूरी होगी गुरुदेव!" महर्षि मतंग बोले " वे ईश्वर हैं अवश्य ही आएंगे! यह भावी निश्चित हैं" लेकिन यदि उनकी इच्छा हुई तो काल दर्शन के इस विज्ञान को परे रखकर वे कभी भी आ सकते हैं! लेकिन आएंगे अवश्य" जन्म मरण से परे उन्हें जब जरूरत हुई तो प्रह्लाद के लिए खम्बे से भी निकल आये थे! इसलिए प्रतीक्षा करना ! वे कभी भी आ सकते हैं! तीनों काल तुम्हारे गुरु के रूप में मुझे याद रखेंगे! शायद यही मेरे तप का फल हैं । सबरी गुरु के आदेश को मान वहीं आश्रम में रुक गई उसे हर दिन प्रभु श्रीराम की प्रतीक्षा रहती थी । वह जानती थी समय का चक्र उनकी उंगली पर नाचता हैं वे कभी भी आ सकतें हैं हर रोज रास्ते मे फूल बिछाती हर क्षण प्रतीक्षा करती! कभी भी आ सकतें हैं हर तरफ फूल बिछाकर हर क्षण प्रतीक्षा! सबरी बूढ़ी हो गई !! लेकिन प्रतीक्षा उसी अबोध चित्त से करती रही और एक दिन उसके बिछाए फूलों पर प्रभु श्रीराम के चरण पड़े! सबरी का कंठ अवरुद्ध हो गया! आंखों से अश्रुओं की धारा फूट पड़ी! गुरु का कथन सत्य हुआ! भगवान उसके घर आ गए! सबरी की प्रतीक्षा का फल ये रहा कि जिन राम को कभी तीनों माताओं ने जूठा नही खिलाया उन्ही राम ने सबरी का जूठा खाया!❤️❤️❤️❤️❤️
हरे कृष्णा दंडवत प्रणाम 🙏 Rajeshwaranand maharaj goswami ji ke Charno me dandvat parnaam h , Baba maharaj ki agar kirpa hui to me aap se ek din jarur miluga
जय श्री राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम हरे राम हरे हरे राम हरे राम हरे राम हरे हरे राम हरे राम हरे राम हरे राम हरे राम हरे राम हरे राम हरे राम हरे राम हरे राम हरे राम हरे राम हरे राम हरे 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
पुराने जमाने में एक राजा हुए थे, भर्तृहरि। वे कवि भी थे। उनकी पत्नी अत्यंत रूपवती थी। भर्तृहरि ने स्त्री के सौंदर्य और उसके बिना जीवन के सूनेपन पर 100 श्लोक लिखे, जो श्रृंगार शतकम् के नाम से प्रसिद्ध हैं।उन्हीं के राज्य में एक ब्राह्मण (योगी गोरखनाथ) भी रहता था, जिसने अपनी नि:स्वार्थ पूजा से देवता को प्रसन्न कर लिया। देवता ने उसे वरदान के रूप में अमर फल देते हुए कहा कि इससे आप लंबे समय तक युवा रहोगे।ब्राह्मण ने सोचा कि भिक्षा मांग कर जीवन बिताता हूं,मुझे लंबे समय तक जी कर क्या करना है।हमारा राजा बहुत अच्छा है, उसे यह फल दे देता हूं। वह लंबे समय तक जीएगा तो प्रजा भी लंबे समय तक सुखी रहेगी। वह राजा के पास गया और उनसे सारी बात बताते हुए वह फल उन्हें दे आया। राजा फल पाकर प्रसन्न हो गया। फिर मन ही मन सोचा कि यह फल मैं अपनी पत्नी को दे देता हूं। वह ज्यादा दिन युवा रहेगी तो ज्यादा दिनों तक उसके साहचर्य का लाभ मिलेगा। अगर मैंने फल खाया तो वह मुझ से पहले ही मर जाएगी और उसके वियोग में मैं भी नहीं जी सकूंगा। उसने वह फल अपनी पत्नी को दे दिया।लेकिन, रानी तो नगर के कोतवाल से प्यार करती थी। वह अत्यंत सुदर्शन, हृष्ट-पुष्ट और बातूनी था। अमर फल उसको देते हुए रानी ने कहा कि इसे खा लेना, इससे तुम लंबी आयु प्राप्त करोगे और मुझे सदा प्रसन्न करते रहोगे। फल ले कर कोतवाल जब महल से बाहर निकला तो सोचने लगा कि रानी के साथ तो मुझे धन-दौलत के लिए झूठ-मूठ ही प्रेम का नाटक करना पड़ता है। और यह फल खाकर मैं क्या करूंगा। इसे मैं अपनी परम मित्र राज नर्तकी को दे देता हूं। वह कभी मेरी कोई बात नहीं टालती। मैं उससे प्रेम भी करता हूं। और यदि वह सदा युवा रहेगी, तो दूसरों को भी सुख दे पाएगी। उसने वह फल अपनी उस नर्तकी मित्र को दे दिया। राज नर्तकी ने कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप वह अमर फल अपने पास रख लिया। कोतवाल के जाने के बाद उसने सोचा कि कौन मूर्ख यह पाप भरा जीवन लंबा जीना चाहेगा। हमारे देश का राजा बहुत अच्छा है, उसे ही लंबा जीवन जीना चाहिए। यह सोच कर उसने किसी प्रकार से राजा से मिलने का समय लिया और एकांत में उस फल की महिमा सुना कर उसे राजा को दे दिया। और कहा कि महाराज, आप इसे खा लेना। राजा फल को देखते ही पहचान गया और भौंचक्का रह गया। पूछताछ करने से जब पूरी बात मालूम हुई, तो उसे वैराग्य हो गया और वह राज-पाट छोड़ कर जंगल में चला गया। वहीं उसने वैराग्य पर 100 श्लोक लिखे जो कि वैराग्य शतकम् के नाम से प्रसिद्ध हैं। यही इस संसार की वास्तविकता है। एक व्यक्ति किसी अन्य से प्रेम करता है और चाहता है कि वह व्यक्ति भी उसे उतना ही प्रेम करे। परंतु विडंबना यह कि वह दूसरा व्यक्ति किसी अन्य से प्रेम करता है। इसका कारण यह है कि संसार व इसके सभी प्राणी अपूर्ण हैं। सब में कुछ न कुछ कमी है। सिर्फ एक ईश्वर पूर्ण है। एक वही है जो हर जीव से उतना ही प्रेम करता है,जितना जीव उससे करता है। बस हम ही उसे सच्चा प्रेम नहीं करते । जय श्री कृष्ण आप सभी धर्मानुरागी मित्रों को !🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश युद्धभूमि में क्यों दिया ? भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में दिया और वह भी तब, जब युद्ध की घोषणा हो चुकी थी, दोनों पक्षों की सेनाएं आमने-सामने आ गईं थीं । रणभेरी बज चुकी थी । क्यों ? भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश किसी ऋषि-मुनियों और विद्वानों की सभा या गुरुकुल में नहीं दिया, बल्कि उस युग के सबसे बड़े युद्ध ‘महाभारत’ की रणभूमि में किया । युद्ध अनिश्चितता का प्रतीक है, जिसमें दोनों पक्षों के प्राण और प्रतिष्ठा दाँव पर लगते हैं । युद्ध के ऐसे अनिश्चित वातावरण में मनुष्य को शोक, मोह व भय रूपी मानसिक दुर्बलता व अवसाद से बाहर निकालने के लिए एक उच्चकोटि के ज्ञान-दर्शन की आवश्यकता होती है; इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का ज्ञान वहीं दिया, जहां उसकी सबसे अधिक आवश्यकता थी । श्रीकृष्ण जगद्गुरु हैं । गीता के उपदेश द्वारा श्रीकृष्ण ने अर्जुन को मन से मजबूत बना दिया । महाभारत के युद्ध में अर्जुन के सामने कई बार ऐसे क्षण आए भी । अभिमन्यु की मृत्यु के समाचार से जब अर्जुन शोक और विषाद से भर गए, तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को स्मरण कराया- ‘’यह युद्ध है, यह अपना मूल्य लेगा ही । युद्ध में सब कुछ संभव है ।’ यह गीता के ज्ञान का ही परिणाम था कि अर्जुन दूसरे दिन एक महान लक्ष्य के संकल्प के साथ युद्धभूमि में आते हैं । महाभारत का युद्ध द्वापर के अंत में लड़ा गया था और कलियुग आने वाला था । भगवान श्रीकृष्ण जानते थे कि कलियुग में मानव मानसिक रूप से बहुत दुर्बल होगा क्योंकि धर्म के तीन पैर-सत्य, तप और दान का कलियुग में लोप हो जाएगा । मनुष्य के पास सत्य, तप और दान का बल कम होगा । मनुष्य शोक और मोह से ग्रस्त होकर ऊहापोह की स्थिति-‘क्या करें, क्या न करें’ में भ्रमित रहेगा । उस समय गीता का ज्ञान ही जीवन-संग्राम में मनुष्य का पथ-प्रदर्शक होगा । जीवन-संग्राम में मनुष्य का सबसे बड़ा पथ-प्रदर्शक है गीता का ज्ञान!!!!!! आज मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन ही एक संग्राम है । मानव जीवन में छोटे-छोटे युद्ध (धन का अभाव, पारिवारिक कलह, बीमारी, बच्चों की अच्छी परवरिश, शिक्षा व विवाह आदि की चिंता, ऋण-भार आदि) नित्य ही चलते रहते हैं । जीवन का गणित ही कुछ ऐसा है कि जीवन सदा एक-सा नहीं रहता है । यहां जय-पराजय, लाभ-हानि, सुख-दु:ख का क्रम चलता ही रहता है । समय और परिस्थिति के थपेड़े हमें डांवाडोल करते ही रहते हैं । इस युद्ध में मनुष्य बुरी तरह से टूट कर आत्महत्या जैसे गलत कदम भी उठा लेता है । गीता का ज्ञान मनुष्य यदि हृदय में उतार ले, तो फिर हर परिस्थिति का वह अर्जुन की तरह डट कर सामना कर सकता है- ▪️‘सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ’ अर्थात् सुख-दु:ख, लाभ-हानि, जय-पराजय-हर परिस्थिति में सम रह कर जीवन युद्ध लड़ो, समता का दृष्टिकोण अपना कर कर्तव्य पालन करो । ▪️‘जो पैदा हुआ है, वह मरेगा अवश्य ।’ अत: मृत्यु के प्रति हमें स्वागत की दृष्टि विकसित कर लेनी चाहिए ।’ यह जीवन-दर्शन भगवान श्रीकृष्ण ने अपने जीवन में जीकर भी दिखाया । जन्म से पूर्व ही मृत्यु उनका पीछा कर रही थी । कौन-से उपाय कंस ने श्रीकृष्ण को मरवाने के लिए नही किए ? परंतु हर बार मृत्यु उनसे हार गई । जब वे इस धराधाम को छोड़कर गए, तब भी संसार को यह सिखा दिया कि मृत्यु का स्वागत किस तरह करना चाहिए ? महाभारत युद्ध में बड़े-बड़े ब्रह्मास्त्रों और दिव्य अस्त्रों की काट अर्जुन को बताने वाले श्रीकृष्ण मृत्यु के वरण के लिए एक वृक्ष के नीचे जाकर लेट गए और पूरी प्रसन्नता और तटस्थता के साथ जरा व्याध के तीर का स्वागत किया और अपनी संसार-लीला को समेट लिया । ऐसा अद्भुत श्रीकृष्ण का चरित्र और वैसा ही उनका अलौकिक गीता का ज्ञान; जो सच्चे मन से हृदयंगम करने पर मनुष्य को जीवन-संग्राम में पग-पग पर राह दिखाता है और कर्तव्य-बोध कराता है । जय श्री कृष्ण*
मनुष्य के बार-बार जन्म-मरण का क्या कारण है ? एक बार द्वारकानाथ श्रीकृष्ण अपने महल में दातुन कर रहे थे । रुक्मिणी जी स्वयं अपने हाथों में जल लिए उनकी सेवा में खड़ी थीं । अचानक द्वारकानाथ हंसने लगे । रुक्मिणी जी ने सोचा कि शायद मेरी सेवा में कोई गलती हो गई है; इसलिए द्वारकानाथ हंस रहे हैं । रुक्मिणी जी ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा-‘प्रभु ! आप दातुन करते हुए अचानक इस तरह हंस क्यों पड़े, क्या मुझसे कोई गलती हो गई ? कृपया, आप मुझे अपने हंसने का कारण बताएं ।’ श्रीकृष्ण बोले-‘नहीं, प्रिये ! आपसे सेवा में त्रुटि होना कैसे संभव है ? आप ऐसा न सोचें, बात कुछ और है ।’ रुक्मिणी जी ने कहा-‘आप अपने हंसने का रहस्य मुझे बता दें तो मेरे मन को शान्ति मिल जाएगी; अन्यथा मेरे मन में बेचैनी बनी रहेगी ।’ तब श्रीकृष्ण ने मुसकराते हुए रुक्मिणी जी से कहा-‘देखो, वह सामने एक चींटा चींटी के पीछे कितनी तेजी से दौड़ा चला जा रहा है । वह अपनी पूरी ताकत लगा कर चींटी का पींछा कर उसे पा लेना चाहता है । उसे देख कर मुझे अपनी मायाशक्ति की प्रबलता का विचार करके हंसी आ रही है ।’ रुक्मिणी जी ने आश्चर्यचकित होते हुए कहा-‘वह कैसे प्रभु ? इस चींटी के पीछे चींटे के दौड़ने पर आपको अपनी मायाशक्ति की प्रबलता कैसे दीख गई ?’ भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-‘मैं इस चींटे को चौदह बार इंद्र बना चुका हूँ । चौदह बार देवराज के पद का भोग करने पर भी इसकी भोगलिप्सा समाप्त नहीं हुई है । यह देख कर मुझे हंसी आ गई ।’ इंद्र की पदवी भी भोग योनि है । मनुष्य अपने उत्कृष्ट कर्मों से इंद्रत्व को प्राप्त कर सकता है । सौ अश्वमेध यज्ञ करने वाला व्यक्ति इंद्र-पद प्राप्त कर लेता है । लेकिन जब उनके भोग पूरे हो जाते हैं तो उसे पुन: पृथ्वी पर आकर जन्म ग्रहण करना पड़ता है । प्रत्येक जीव इंद्रियों का स्वामी है; परंतु जब जीव इंद्रियों का दास बन जाता है तो जीवन कलुषित हो जाता है और बार-बार जन्म-मरण के बंधन में पड़ता है । वासना ही पुनर्जन्म का कारण है । जिस मनुष्य की जहां वासना होती है, उसी के अनुरूप ही अंतसमय में चिंतन होता है और उस चिंतन के अनुसार ही मनुष्य की गति-ऊंच-नीच योनियों में जन्म होता है । अत: वासना को ही नष्ट करना चाहिए । वासना पर विजय पाना ही सुखी होने का उपाय है । बुझै न काम अगिनि तुलसी कहुँ, विषय भोग बहु घी ते । अग्नि में घी डालते जाइये, वह और भी धधकेगी, यही दशा काम की है । उसे बुझाना हो तो संयम रूपी शीतल जल डालना होगा । संसार का मोह छोड़ना बहुत कठिन है । वासनाएं बढ़ती हैं तो भोग बढ़ते हैं, इससे संसार कटु हो जाता है । वासनाएं जब तक क्षीण न हों तब तक मुक्ति नहीं मिलती है । पूर्वजन्म का शरीर तो चला गया परन्तु पूर्वजन्म का मन नहीं गया । नास्ति तृष्णासमं दु:खं नास्ति त्यागसमं सुखम्। सर्वांन् कामान् परित्यज्य ब्रह्मभूयाय कल्पते ।। तृष्णा के समान कोई दु:ख नहीं है और त्याग के समान कोई सुख नहीं है । समस्त कामनाओं-मान, बड़ाई, स्वाद, शौकीनी, सुख-भोग, आलस्य आदि का परित्याग करके केवल भगवान की शरण लेने से ही मनुष्य ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है । नहीं है भोग की वांछा न दिल में लालसा धन की । प्यास दरसन की भारी है सफल कर आस को मेरी ।।
Jai shree Ram
|| जय गुरुदेव || ❤🙏
Hari om🙏🙏🙏
🙏🙏🙏 हरि ॐ शंकर🙏🙏🙏
Ram Ram 🙏🙏
जय जय श्री सीताराम
सीता राम👏👏
🙏🙏🙏 जय श्री सिया राम 🙏🙏🙏
Ramram
🙏🙏🙏 जय श्री सिया राम 🙏🙏🙏
RAM RAM
🙏🙏🙏 जय श्री सिया राम जी 🙏🙏🙏
श्री राम जय राम जय जय राम।
🙏🙏🙏जय श्री सिया राम 🙏🙏🙏
हरि मिलन
〰️🌼🌼〰️
सबरी को आश्रम सौंपकर महर्षी मतंग जब देवलोक जाने लगे तब सबरी भी साथ जाने की जिद करने लगी।
सबरी की उम्र दस वर्ष थी। वो महर्षि मतंग का हाथ पकड़ रोने लगी
महर्षि सबरी को रोते देख व्याकुल हो उठे! सबरी को समझाया "पुत्री इस आश्रम में भगवान आएंगे यहां प्रतीक्षा करो!"
अबोध सबरी इतना अवश्य जानती थी कि गुरु का वाक्य सत्य होकर रहेगा! उसने फिर पूछा "कब आएंगे?
महर्षि मतंग त्रिकालदर्शी थे वे भूत भविष्य सब जानते थे वे ब्रह्मर्षि थे।
महर्षि सबरी के आगे घुटनों के बल बैठ गए, सबरी को नमन किया
आसपास उपस्थित सभी ऋषिगण असमंजस में डूब गए, ये उलट कैसे हुआ! गुरु यहां शिष्य को नमन करे! ये कैसे हुआ?
महर्षि के तेज के आगे कोई बोल न सका!
महर्षि मतंग बोले "पुत्री अभी उनका जन्म नही हुआ!"
अभी दसरथजी का लग्न भी नही हुआ! उनका कौशल्या से विवाह होगा! फिर भगवान की लम्बी प्रतीक्षा होगी फिर दसरथजी का विवाह सुमित्रा से होगा ! फिर प्रतीक्षा! फिर उनका विवाह कैकई से होगा फिर प्रतीक्षा! फिर वो जन्म लेंगे! फिर उनका विवाह माता जानकी से होगा! फिर उन्हें 14 वर्ष वनवास होगा और फिर वनवास के आखिरी वर्ष माता जानकी का हरण होगा तब उनकी खोज में वे यहां आएंगे! तुम उन्हें कहना "आप सुग्रीव से मित्रता कीजिये उसे आतताई बाली के संताप से मुक्त कीजिये आपका अभिष्ट सिद्ध होगा! और आप रावण पर अवश्य विजय प्राप्त करेंगे!"
सबरी एक क्षण किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई! अबोध सबरी इतनी लंबी प्रतीक्षा के समय को माप भी नही पाई!
वह फिर अधीर होकर पूछने लगी "इतनी लम्बी प्रतीक्षा कैसे पूरी होगी गुरुदेव!"
महर्षि मतंग बोले " वे ईश्वर हैं अवश्य ही आएंगे! यह भावी निश्चित हैं"
लेकिन यदि उनकी इच्छा हुई तो काल दर्शन के इस विज्ञान को परे रखकर वे कभी भी आ सकते हैं! लेकिन आएंगे अवश्य"
जन्म मरण से परे उन्हें जब जरूरत हुई तो प्रह्लाद के लिए खम्बे से भी निकल आये थे! इसलिए प्रतीक्षा करना ! वे कभी भी आ सकते हैं!
तीनों काल तुम्हारे गुरु के रूप में मुझे याद रखेंगे! शायद यही मेरे तप का फल हैं ।
सबरी गुरु के आदेश को मान वहीं आश्रम में रुक गई
उसे हर दिन प्रभु श्रीराम की प्रतीक्षा रहती थी । वह जानती थी समय का चक्र उनकी उंगली पर नाचता हैं वे कभी भी आ सकतें हैं
हर रोज रास्ते मे फूल बिछाती हर क्षण प्रतीक्षा करती!
कभी भी आ सकतें हैं
हर तरफ फूल बिछाकर हर क्षण प्रतीक्षा! सबरी बूढ़ी हो गई !!
लेकिन प्रतीक्षा उसी अबोध चित्त से करती रही
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सबरी का कंठ अवरुद्ध हो गया!
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गुरु का कथन सत्य हुआ! भगवान उसके घर आ गए!
सबरी की प्रतीक्षा का फल ये रहा कि जिन राम को कभी तीनों माताओं ने जूठा नही खिलाया उन्ही राम ने सबरी का जूठा खाया!❤️❤️❤️❤️❤️
Jay Shree Ram 🙏🙏
🙏🙏🙏जय श्री सिया राम 🙏🙏🙏
Jai sree ram
🙏🙏🙏 जय श्री सिया राम 🙏🙏🙏
जय श्री सीताराम सीताराम सीताराम सीताराम सीताराम सीताराम सीताराम सीताराम सीताराम सीताराम सीताराम सीताराम सीताराम सीताराम
🙏🙏🙏 जय श्री सिया राम 🙏🙏🙏
जय श्री राम गुरूजी राधे राधे कोटि कोटि नमन 🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉
jai govind namo namo
🙏🙏🙏 राधे राधे 🙏🙏🙏
हरे कृष्णा दंडवत प्रणाम 🙏
Rajeshwaranand maharaj goswami ji ke Charno me dandvat parnaam h ,
Baba maharaj ki agar kirpa hui to me aap se ek din jarur miluga
🙏🙏🙏 जय श्री राधे कृष्णा 🙏🙏🙏
पूज्य महाराज जी को सादर चरण स्पर्श।
जय श्री र
ज य श्री राम
जै श्री राम🚩🚩🚩
Ab kahahu nij anubhav khagsha Binu Hari bhajan n mithi klesha Swamiji ko Koti koti naman Atishay pyari Katha 🌺🙏🏻🙏🏻🙏🏻🌺
🙏🙏🙏जय श्री सिया राम 🙏🙏🙏
जय श्री राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम हरे राम हरे हरे राम हरे राम हरे राम हरे हरे राम हरे राम हरे राम हरे राम हरे राम हरे राम हरे राम हरे राम हरे राम हरे राम हरे राम हरे राम हरे राम हरे 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
🙏🙏🙏 हरे राम हरे रामा... रामा रामा हरे हरे 🙏🙏🙏
महाराज जी को दण्डवत प्रणाम
🙏🙏🙏 जय श्री सिया राम 🙏🙏🙏
Jai sri ram sita ram jai hanuman 🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
🙏🙏🙏 जय श्री सिया राम 🙏🙏🙏
प्रणाम महाराज जी🙏🙏
अति सुंदर प्रसंग
🙏🙏🙏 जय श्री सिया राम 🙏🙏🙏
जय जय श्री सीताराम श्री सीताराम श्री सीताराम श्री सीताराम श्री सीताराम
🙏🙏🙏 जय श्री सिया राम 🙏🙏🙏
Jai ho prabhu
🙏🙏🙏 जय श्री सिया राम 🙏🙏🙏
बहुत ही सुंदर ! श्री राम बालरूपाय नमः 🙏🌹🙏 संत श्री चरणों में सादर नमन ! 🙏🌹🙏
🙏🙏🙏जय श्री सिया राम 🙏🙏🙏
@@aatmmanthan5693 Oooo uclid
Jai ho Maharaj ji ki koti koti pranam bhut bahut sundar kripa kare Maharaj ji
P
Guruji ne prmatma ka ahsas kra diya
Jay ho gurudev
Jay jay shri ram
🙏🙏🙏 जय श्री सिया राम 🙏🙏🙏
Jai shree Sita Ram 🙏🙏🙏
🙏🙏🙏 जय श्री सिया राम 🙏🙏🙏
राम राम जय सीताराम
🙏🙏🙏जय श्री सिया राम 🙏🙏🙏
Hari om guru ji🙏🙏🙏💕💕🌹🌹
🙏🙏🙏 हरि ॐ 🙏🙏🙏
🌹🌹🌹 jai shri Ram Ram ji 🌹🌹🌹
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
🙏🙏🙏 जय श्री सिया राम 🙏🙏🙏
Jai shree krishna 🙏🙏🙏🙏
🙏🙏🙏 जय श्री राधे कृष्णा 🙏🙏🙏
Apni apni soch he ya nahi baki sab aapni chalate he
🙏🙏🙏 सब राम जी की महिमा है राम राम 🙏🙏🙏
@@aatmmanthan5693 jay shree Ram
Jai shri radhe krishna ❤️❤️
🙏🙏🙏 जय श्री राधे कृष्णा जी 🙏🙏🙏
Jai siya Ram Lakhan jai bajrangbali ke charn spars jai
🙏🙏🙏 जय श्री सिया राम 🙏🙏🙏
जय सीताराम
🙏🙏🙏जय श्री सिया राम 🙏🙏🙏
Satya
🙏🙏🙏 राम राम जी🙏🙏🙏
JO. KATA. HAEY. PER. MATAMA. NAHE. HAEY. SURY. BHAGOAN. HAEY.
ʜᴀʀ ʜᴀʀ ᴍᴀʜᴀᴅᴇᴠ ʜᴀʀ ʜᴀʀ ꜱʜᴀᴍʙʜᴜ ɴᴍ ꜱʜɪᴠᴀᴀy ᴊᴀɪ ꜱʜʀᴇᴇ ʀᴀᴍ ʀᴀᴍ ʀᴀᴍ ʀᴀᴍ ʀᴀᴍ ʀᴀᴍ ʀᴀᴍ ᴊᴀɪ ʜᴀɴᴜᴍᴀɴ ᴏᴍ ɴᴍ ꜱʜɪᴠᴀᴀy
🙌🙌🙌 हर हर हर महादेव 🙌🙌🙌
जय श्री राम
🙏🙏🙏 जय श्री सिया राम 🙏🙏🙏
Jai shri sita ram ❤️🙏
🙏🙏🙏जय श्री सिया राम 🙏🙏🙏
Jai shri bhole baba jai shri Ram Ram ji jai shri Krishna jai shri bhole baba jai shri Ram Ram ji
🙌🙌🙌 हर हर हर महादेव 🙌🙌🙌
Jai shri radhe krishna ji ki ❤️❤️❤️
🙏🙏🙏 जय श्री राधे कृष्णा 🙏🙏🙏
परम् पूज्य श्री गुरूदेव जी महाराज के पावन चरणों में सादर नमन वंदन जय श्री राम जय जय श्री हनुमान जी महाराज हर हर महादेव 🙏
🙏🙏🙏 जय श्री सिया राम 🙏🙏🙏
Satyam satyam param satya
🙏🙏🙏
पुराने जमाने में एक राजा हुए थे, भर्तृहरि। वे कवि भी थे। उनकी पत्नी अत्यंत रूपवती थी।
भर्तृहरि ने स्त्री के सौंदर्य और उसके बिना जीवन के सूनेपन पर 100 श्लोक लिखे, जो श्रृंगार शतकम् के नाम से प्रसिद्ध हैं।उन्हीं के राज्य में एक ब्राह्मण (योगी गोरखनाथ) भी रहता था, जिसने अपनी नि:स्वार्थ पूजा से देवता को प्रसन्न कर लिया।
देवता ने उसे वरदान के रूप में अमर फल देते हुए कहा कि इससे आप लंबे समय तक युवा रहोगे।ब्राह्मण ने सोचा कि भिक्षा मांग कर जीवन बिताता हूं,मुझे लंबे समय तक जी कर क्या करना है।हमारा राजा बहुत अच्छा है, उसे यह फल दे देता हूं। वह लंबे समय तक जीएगा तो प्रजा भी लंबे समय तक सुखी रहेगी। वह राजा के पास गया और उनसे सारी बात बताते हुए वह फल उन्हें दे आया।
राजा फल पाकर प्रसन्न हो गया। फिर मन ही मन सोचा कि यह फल मैं अपनी पत्नी को दे देता हूं। वह ज्यादा दिन युवा रहेगी तो ज्यादा दिनों तक उसके साहचर्य का लाभ मिलेगा। अगर मैंने फल खाया तो वह मुझ से पहले ही मर जाएगी और उसके वियोग में मैं भी नहीं जी सकूंगा। उसने वह फल अपनी पत्नी को दे दिया।लेकिन, रानी तो नगर के कोतवाल से प्यार करती थी। वह अत्यंत सुदर्शन, हृष्ट-पुष्ट और बातूनी था। अमर फल उसको देते हुए रानी ने कहा कि इसे खा लेना, इससे तुम लंबी आयु प्राप्त करोगे और मुझे सदा प्रसन्न करते रहोगे।
फल ले कर कोतवाल जब महल से बाहर निकला तो सोचने लगा कि रानी के साथ तो मुझे धन-दौलत के लिए झूठ-मूठ ही प्रेम का नाटक करना पड़ता है। और यह फल खाकर मैं क्या करूंगा। इसे मैं अपनी परम मित्र राज नर्तकी को दे देता हूं। वह कभी मेरी कोई बात नहीं टालती। मैं उससे प्रेम भी करता हूं। और यदि वह सदा युवा रहेगी, तो दूसरों को भी सुख दे पाएगी। उसने वह फल अपनी उस नर्तकी मित्र को दे दिया।
राज नर्तकी ने कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप वह अमर फल अपने पास रख लिया। कोतवाल के जाने के बाद उसने सोचा कि कौन मूर्ख यह पाप भरा जीवन लंबा जीना चाहेगा। हमारे देश का राजा बहुत अच्छा है, उसे ही लंबा जीवन जीना चाहिए। यह सोच कर उसने किसी प्रकार से राजा से मिलने का समय लिया और एकांत में उस फल की महिमा सुना कर उसे राजा को दे दिया। और कहा कि महाराज, आप इसे खा लेना।
राजा फल को देखते ही पहचान गया और भौंचक्का रह गया। पूछताछ करने से जब पूरी बात मालूम हुई, तो उसे वैराग्य हो गया और वह राज-पाट छोड़ कर जंगल में चला गया। वहीं उसने वैराग्य पर 100 श्लोक लिखे जो कि वैराग्य शतकम् के नाम से प्रसिद्ध हैं।
यही इस संसार की वास्तविकता है। एक व्यक्ति किसी अन्य से प्रेम करता है और चाहता है कि वह व्यक्ति भी उसे उतना ही प्रेम करे। परंतु विडंबना यह कि वह दूसरा व्यक्ति किसी अन्य से प्रेम करता है। इसका कारण यह है कि संसार व इसके सभी प्राणी अपूर्ण हैं। सब में कुछ न कुछ कमी है। सिर्फ एक ईश्वर पूर्ण है। एक वही है जो हर जीव से उतना ही प्रेम करता है,जितना जीव उससे करता है। बस हम ही उसे सच्चा प्रेम नहीं करते ।
जय श्री कृष्ण आप सभी धर्मानुरागी मित्रों को !🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉
🙏🙏🙏 जय श्री राधे कृष्णा 🙏🙏🙏
Bhagwan hai ye stya hai
I h v life long problems in life but by remembering him all the time i pass my life very happily
🙏🙏🙏 ये सत्य नहीं परम् सत्य है 🙏🙏🙏
@@shrikantsharma5885 बस उसे याद रखें
Jay shree ram
🙏🙏🙏 जय श्री सिया राम 🙏🙏🙏
In Maharaj ji ka naam kya hai ? 🙏
Swami Rajeswaranand
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश युद्धभूमि में क्यों दिया ?
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में दिया और वह भी तब, जब युद्ध की घोषणा हो चुकी थी, दोनों पक्षों की सेनाएं आमने-सामने आ गईं थीं । रणभेरी बज चुकी थी । क्यों ?
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश किसी ऋषि-मुनियों और विद्वानों की सभा या गुरुकुल में नहीं दिया, बल्कि उस युग के सबसे बड़े युद्ध ‘महाभारत’ की रणभूमि में किया । युद्ध अनिश्चितता का प्रतीक है, जिसमें दोनों पक्षों के प्राण और प्रतिष्ठा दाँव पर लगते हैं । युद्ध के ऐसे अनिश्चित वातावरण में मनुष्य को शोक, मोह व भय रूपी मानसिक दुर्बलता व अवसाद से बाहर निकालने के लिए एक उच्चकोटि के ज्ञान-दर्शन की आवश्यकता होती है; इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का ज्ञान वहीं दिया, जहां उसकी सबसे अधिक आवश्यकता थी ।
श्रीकृष्ण जगद्गुरु हैं । गीता के उपदेश द्वारा श्रीकृष्ण ने अर्जुन को मन से मजबूत बना दिया । महाभारत के युद्ध में अर्जुन के सामने कई बार ऐसे क्षण आए भी । अभिमन्यु की मृत्यु के समाचार से जब अर्जुन शोक और विषाद से भर गए, तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को स्मरण कराया-
‘’यह युद्ध है, यह अपना मूल्य लेगा ही । युद्ध में सब कुछ संभव है ।’
यह गीता के ज्ञान का ही परिणाम था कि अर्जुन दूसरे दिन एक महान लक्ष्य के संकल्प के साथ युद्धभूमि में आते हैं ।
महाभारत का युद्ध द्वापर के अंत में लड़ा गया था और कलियुग आने वाला था । भगवान श्रीकृष्ण जानते थे कि कलियुग में मानव मानसिक रूप से बहुत दुर्बल होगा क्योंकि धर्म के तीन पैर-सत्य, तप और दान का कलियुग में लोप हो जाएगा । मनुष्य के पास सत्य, तप और दान का बल कम होगा । मनुष्य शोक और मोह से ग्रस्त होकर ऊहापोह की स्थिति-‘क्या करें, क्या न करें’ में भ्रमित रहेगा । उस समय गीता का ज्ञान ही जीवन-संग्राम में मनुष्य का पथ-प्रदर्शक होगा ।
जीवन-संग्राम में मनुष्य का सबसे बड़ा पथ-प्रदर्शक है गीता का ज्ञान!!!!!!
आज मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन ही एक संग्राम है । मानव जीवन में छोटे-छोटे युद्ध (धन का अभाव, पारिवारिक कलह, बीमारी, बच्चों की अच्छी परवरिश, शिक्षा व विवाह आदि की चिंता, ऋण-भार आदि) नित्य ही चलते रहते हैं । जीवन का गणित ही कुछ ऐसा है कि जीवन सदा एक-सा नहीं रहता है । यहां जय-पराजय, लाभ-हानि, सुख-दु:ख का क्रम चलता ही रहता है । समय और परिस्थिति के थपेड़े हमें डांवाडोल करते ही रहते हैं । इस युद्ध में मनुष्य बुरी तरह से टूट कर आत्महत्या जैसे गलत कदम भी उठा लेता है ।
गीता का ज्ञान मनुष्य यदि हृदय में उतार ले, तो फिर हर परिस्थिति का वह अर्जुन की तरह डट कर सामना कर सकता है-
▪️‘सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ’ अर्थात् सुख-दु:ख, लाभ-हानि, जय-पराजय-हर परिस्थिति में सम रह कर जीवन युद्ध लड़ो, समता का दृष्टिकोण अपना कर कर्तव्य पालन करो ।
▪️‘जो पैदा हुआ है, वह मरेगा अवश्य ।’ अत: मृत्यु के प्रति हमें स्वागत की दृष्टि विकसित कर लेनी चाहिए ।’
यह जीवन-दर्शन भगवान श्रीकृष्ण ने अपने जीवन में जीकर भी दिखाया । जन्म से पूर्व ही मृत्यु उनका पीछा कर रही थी । कौन-से उपाय कंस ने श्रीकृष्ण को मरवाने के लिए नही किए ? परंतु हर बार मृत्यु उनसे हार गई । जब वे इस धराधाम को छोड़कर गए, तब भी संसार को यह सिखा दिया कि मृत्यु का स्वागत किस तरह करना चाहिए ?
महाभारत युद्ध में बड़े-बड़े ब्रह्मास्त्रों और दिव्य अस्त्रों की काट अर्जुन को बताने वाले श्रीकृष्ण मृत्यु के वरण के लिए एक वृक्ष के नीचे जाकर लेट गए और पूरी प्रसन्नता और तटस्थता के साथ जरा व्याध के तीर का स्वागत किया और अपनी संसार-लीला को समेट लिया ।
ऐसा अद्भुत श्रीकृष्ण का चरित्र और वैसा ही उनका अलौकिक गीता का ज्ञान; जो सच्चे मन से हृदयंगम करने पर मनुष्य को जीवन-संग्राम में पग-पग पर राह दिखाता है और कर्तव्य-बोध कराता है ।
जय श्री कृष्ण*
🙏🙏🙏 जय श्री राधे कृष्णा 🙏🙏🙏
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So interesting and enjoyable shri Ram ji story
🙏🙏🙏 जय श्री सिया राम जी 🙏🙏🙏
मनुष्य के बार-बार जन्म-मरण का क्या कारण है ?
एक बार द्वारकानाथ श्रीकृष्ण अपने महल में दातुन कर रहे थे । रुक्मिणी जी स्वयं अपने हाथों में जल लिए उनकी सेवा में खड़ी थीं । अचानक द्वारकानाथ हंसने लगे । रुक्मिणी जी ने सोचा कि शायद मेरी सेवा में कोई गलती हो गई है; इसलिए द्वारकानाथ हंस रहे हैं ।
रुक्मिणी जी ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा-‘प्रभु ! आप दातुन करते हुए अचानक इस तरह हंस क्यों पड़े, क्या मुझसे कोई गलती हो गई ? कृपया, आप मुझे अपने हंसने का कारण बताएं ।’
श्रीकृष्ण बोले-‘नहीं, प्रिये ! आपसे सेवा में त्रुटि होना कैसे संभव है ? आप ऐसा न सोचें, बात कुछ और है ।’
रुक्मिणी जी ने कहा-‘आप अपने हंसने का रहस्य मुझे बता दें तो मेरे मन को शान्ति मिल जाएगी; अन्यथा मेरे मन में बेचैनी बनी रहेगी ।’
तब श्रीकृष्ण ने मुसकराते हुए रुक्मिणी जी से कहा-‘देखो, वह सामने एक चींटा चींटी के पीछे कितनी तेजी से दौड़ा चला जा रहा है । वह अपनी पूरी ताकत लगा कर चींटी का पींछा कर उसे पा लेना चाहता है । उसे देख कर मुझे अपनी मायाशक्ति की प्रबलता का विचार करके हंसी आ रही है ।’
रुक्मिणी जी ने आश्चर्यचकित होते हुए कहा-‘वह कैसे प्रभु ? इस चींटी के पीछे चींटे के दौड़ने पर आपको अपनी मायाशक्ति की प्रबलता कैसे दीख गई ?’
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-‘मैं इस चींटे को चौदह बार इंद्र बना चुका हूँ । चौदह बार देवराज के पद का भोग करने पर भी इसकी भोगलिप्सा समाप्त नहीं हुई है । यह देख कर मुझे हंसी आ गई ।’
इंद्र की पदवी भी भोग योनि है । मनुष्य अपने उत्कृष्ट कर्मों से इंद्रत्व को प्राप्त कर सकता है । सौ अश्वमेध यज्ञ करने वाला व्यक्ति इंद्र-पद प्राप्त कर लेता है । लेकिन जब उनके भोग पूरे हो जाते हैं तो उसे पुन: पृथ्वी पर आकर जन्म ग्रहण करना पड़ता है ।
प्रत्येक जीव इंद्रियों का स्वामी है; परंतु जब जीव इंद्रियों का दास बन जाता है तो जीवन कलुषित हो जाता है और बार-बार जन्म-मरण के बंधन में पड़ता है । वासना ही पुनर्जन्म का कारण है । जिस मनुष्य की जहां वासना होती है, उसी के अनुरूप ही अंतसमय में चिंतन होता है और उस चिंतन के अनुसार ही मनुष्य की गति-ऊंच-नीच योनियों में जन्म होता है । अत: वासना को ही नष्ट करना चाहिए । वासना पर विजय पाना ही सुखी होने का उपाय है ।
बुझै न काम अगिनि तुलसी कहुँ,
विषय भोग बहु घी ते ।
अग्नि में घी डालते जाइये, वह और भी धधकेगी, यही दशा काम की है । उसे बुझाना हो तो संयम रूपी शीतल जल डालना होगा ।
संसार का मोह छोड़ना बहुत कठिन है । वासनाएं बढ़ती हैं तो भोग बढ़ते हैं, इससे संसार कटु हो जाता है । वासनाएं जब तक क्षीण न हों तब तक मुक्ति नहीं मिलती है । पूर्वजन्म का शरीर तो चला गया परन्तु पूर्वजन्म का मन नहीं गया ।
नास्ति तृष्णासमं दु:खं नास्ति त्यागसमं सुखम्।
सर्वांन् कामान् परित्यज्य ब्रह्मभूयाय कल्पते ।।
तृष्णा के समान कोई दु:ख नहीं है और त्याग के समान कोई सुख नहीं है । समस्त कामनाओं-मान, बड़ाई, स्वाद, शौकीनी, सुख-भोग, आलस्य आदि का परित्याग करके केवल भगवान की शरण लेने से ही मनुष्य ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है ।
नहीं है भोग की वांछा न दिल में लालसा धन की ।
प्यास दरसन की भारी है सफल कर आस को मेरी ।।
🙏🙏🙏 जय श्री राधे कृष्णा 🙏🙏🙏
Jai sreeram
🙏🙏🙏 जय श्री सिया राम 🙏🙏🙏
Jai shree krishna 🙏🙏🙏
🙏🙏🙏 जय श्री राधे कृष्णा 🙏🙏🙏
Jay shree ram
🙏🙏🙏 जय श्री सिया राम 🙏🙏🙏
Jai Sri Ram
Jai Bajrangbali ki 🙏
🙏🙏🙏जय बजरंगबली हनुमान जी की 🙏🙏🙏
Jai shree sita ram🙏🙏
🙏🙏🙏 जय श्री सिया राम 🙏🙏🙏