नौका विहार कविता की व्याख्या
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- Опубліковано 7 лют 2025
- प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित कविता 'नौका विहार' में पन्त जी ने चाँदनी रात में किए गए नौका-विहार का चित्रण किया है । 'नौका विहार ' कविता पन्त के काव्य संग्रह "गुंजन" में संकलित है। इस कविता की रचना उन्होंने 1932 ई में की थी। इसमें कवि ने गंगा की कल्पना नायिका के रूप में की है। कविता में प्रकृति का सूक्ष्मता से वर्णन करने के साथ ही उसका मानवीकरण भी किया गया है । कवि सुमित्रानंदन पंत ने इलाहाबाद के संगम पर नाव में यात्रा करने वाले व्यक्ति के
मन में उठने वाले भावों का चित्रण किया है, कि रात्रि में संगम का दृश्य कितना मनोहारी लगता है।
व्याख्या
कवि कहता है कि चारों ओर शान्त, तरल एवं उज्ज्व चाँदनी छिटकी हुई है। आकाश टकटकी बाँधे पृथ्वी को देख रहा है। पृथ्वी अत्यधिक शान्त एवं शब्दरहित है। ऐसे मनोहर एवं शान्त वातावरण में क्षीण धार वाली गंगा बालू के बीच मन्द-मन्द बहती ऐसी प्रतीत हो रही है मानो कोई छरहरे, दुबले-पतले शरीर वाली सुन्दर युवती दूध जैसी सफेद शय्या पर गर्मी से व्याकुल होकर थकी, मुरझाई एवं शान्त लेटी हुई हो। गंगा के जल में चन्द्रमा का बिम्ब झलक रहा है, । जो ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे गंगारूपी कोई तपस्विनी अपने चन्द्र-मुख को अपने ही कोमल हाथों पर रखकर लेटी हुई हो और छोटी-छोटी लहरें उसके वक्षस्थल। पर ऐसी प्रतीत होती है मानों वे लहराते हुए कोमल केश हैं।
तारों भरे आकाश की चंचल परछाईं गंगा के जल में जब पड़ती है, तो वह। ऐसी प्रतीत होती है मानो गंगा रूपी तपस्विनी बाला के गोरे-गोरे अंगों के स्पर्श से बार-बार कॉपता, तारों जड़ा उसका नीला आँचल लहरा रहा हो। आकाशरूपी नीले आँचल पर चन्द्रमा की कोमल चाँदनी में प्रकाशित छोटी-छोटी, कोमल, टेढ़ी, बलखाती लहरें ऐसी प्रतीत होती हैं मानो लेटने के कारण उसका
रेशमी साड़ी में सलवटें पड़ गई हों।
वे चाँदनी रात के प्रथम पहर में
नौका-विहार करने के लिए एक छोटी-सी नाव लेकर तेज़ी से गंगा में आगे बढ़ जाते हैं। गंगा के तट के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि गंगा का तट ऐसा रम्य लग रहा है मानो खुली पड़ी रेतीली सीपी पर चन्द्रमा रूपी मोती की चमक यानी चाँदनी भ्रमण कर रही हो। ऐसे सुन्दर वातावरण में गंगा में खड़ी नावों की पालें नौका-विहार के लिए ऊपर चढ़ गई हैं और उन्होंने अपने
लंगर उठा लिए हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि एक साथ अनेक नावें नौका-विहार के लिए गंगा तट से खुली हैं। लंगर उठते ही छोटी-छोटी नावें अपने पालरूपी पंख खोलकर सुन्दर हंसिनियों के समान धीमी-धीमी गति से गंगा में तैरने लगीं। गंगा का जल शान्त एवं निश्चल है, जो दर्पण के समान शोभायमान है। उस
जलरूपी स्वच्छ दर्पण में चाँदनी में नहाया रेतीला तट प्रतिबिम्बित होकर दोगुने परिमाण में प्रकट हो रहा है। गंगा तट पर शोभित कालाकाँकर के राजभवन का प्रतिबिम्ब गंगा जल में
झलक रहा है। ऐसा लग रहा है मानो यह राजभवन गंगा जलरूपी शय्या पर निश्चिन्त होकर सो रहा है और उसकी झुकी पलकों एवं शान्त मन में वैभवरूपी स्वप्न तैर रहे हैं।
गंगा में नौका-विहार करते हुए कवि पन्त जी कहते हैं कि नौका चलने के कारण जल में तरंगें उठती हैं, जिससे जल में प्रतिबिम्बित आकाश इस छोर से उस छोर तक हिलता हुआ-सा प्रतीत होता है। जल में पड़ती तारों की परछाई को देखकर ऐसा आभास होता है, मानों तारों का दल जल के अन्दर के
भाग में प्रकाश फैलाकर अपनी आँखें फाड़-फाड़ कर कुछ ढूँढ रहा हो। गंगा में रह-रहकर उठने वाली चंचल लहरें भी अपने आँचल की आड़ में तारे रूपी छोटे-छोटे जगमगाते दीपकों को छिपाकर प्रतिक्षण लुकती-छिपती हुई-सी प्रतीत होती हैं। वहीं पास में शुक्र तारे की झिलमिलाती परछाई जल में किसी सुन्दर-सी परी की तरह तैरती हुई दिख रही है। श्वेत चमकती हुई जल-तरंगों में उस परछाई के ओझल होने का दृश्य इतना मनोरम है कि कवि को चाँदी से चमकते सुन्दर केशों में परी के छिप जाने का आभास होता है। जल में प्रतिबिम्बित दसमी का चाँद का तिरछा मुख कभी लहरों की चंचलता में छिप जाता है, तो कभी साकार हो उठता है। उसे देख कवि को ऐसी प्रतीत होती है, मानो अपने ही रूप-यौवन से मुग्ध होकर नायिका अपने मुख को कभी चूँघट में छिपा लेती हो, तो कभी उससे बाहर करती है।
कवि की नाव जब गंगा के मध्य धार में पहुँचती है, तो वहाँ से चन्टमा की चाँटनी में चमकते हुए रेतीले तट स्पष्ट दिखाई नहीं देते। कवि को । दर से दिखते दोनों किनारे ऐसे प्रतीत हो रहे हैं, जैसे वे व्याकल होकर गंगा की। धारा रूपी नायिका के पतले कोमल शरीर का आलिंगन करना चाहते हों, जिसके लिए उन्होंने अपनी दोनों बाँहें फैला रखी हैं। दूर क्षितिज पर कतारबद्ध वृक्षों को
देख ऐसा लग रहा है, मानो वे नीले आकाश के विशाल नेत्रों की तिरछी भौंहें हैं और धरती को एकटक निहार रहे हैं।
कवि आगे कहते हैं कि वहाँ पास ही एक द्वीप है, जो लहरों के प्रवाह को विपरीत दिशा में मोड़ रहा है। गंगा की धारा के मध्य स्थित उस द्वीप को देख कवि को ऐसा आभास हो रहा है, जैसे कोई छोटा-सा बालक अपनी माता की छाती से लगकर सो रहा हो। वहीं गंगा नदी के ऊपर एक पक्षी को उड़ते देख कवि सोचने लगता है कि कहीं यह चकवा तो नहीं है, जो भ्रमवश जल में अपनी ही छाया को चकवी समझ उसे पाने की चाह लिए विरह-वेदना को मिटाने हेत व्याकुल हो आकाश में उड़ता जा रहा
बीच धारा में पहुँचने पर अथाह जल होने के कारण नाव के भार में स्वाभाविक रूप से कमी आ जाती है। इसी
आधार पर पन्त जी कहते हैं कि जब मेरी नाव गहरे पानी में धारा के मध्य जा पहँची और उसका भार अत्यधिक कमा हो गया, तब मैंने पतवारों को घमा कर नाव को धारा की विपरीत दिशा में मात्र दिया। पतवारों के चलने से जल में काफी मात्रा में झाग उत्पन्न हो रहा है। इस दृश्य को देख कवि को ऐसा आभास होता है, जैसे पतवार अपनी हथेलियों व फैलाकर उनमें झाग रूपी मोतियों को भर-भर कर तथा तारों रूपी माला तोड़-तोड़कर जल में बिखेर रहे हैं।
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Thanks Mam 😊🙏
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Bahut acha explain Kiya hai mam ne thanks
Thank you so much
बहुत खूबसूरत व्यख्या
Bhut acha laga
अप्रतिम ❤
Bahut achhe...🎉🎉🎉🎉
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Gorgeous mam❤
वाह,क्या बात है👌👌
Very nice
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बहुत-बहुत धन्यवाद दीदी ! ❤❤❤❤❤❤❤❤❤❤❤❤
Thank you mam sthan batane ke liye 😊
Tq
Genuine Mann
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Thank you didi 😊
Thank youhhhh❤
thank u ❤
Bapu ke Prati kahani ki Vyakhya Kab Aaegi
😅😅😅😅😅😅
Exam se ek din pahale 😂😅
😂😂 मे भी आज देख रहा हूँ कल पेपर है 😂😂
@KHARADI-786 Acha ye bhadhiya hai guru ,, mai bhi 2× video play dekhakaar gaya tha exam acha gaya finally
लगता है, हम देरी से आए हैं,कल एक्जाम है।
@@spandey2960 mai bhi exam ke 8 hours pahale hi aaya bhai
Apkaa toh phir bhi okay hai
Iska PDF Hindi Vyakhya
Kaya aap likhakar suna sakati hai
Yes
8:38 8:38 @@sushmakachhap8833
Thank for your advice
Nice vakhya
Thank you mam
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Very nice
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