क्या भगवान होते हैं? | मंगल प्रवचन | मुनि प्रमाणसागर जी

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  • Опубліковано 14 січ 2019
  • जैन लोग किसे मानते हैं ईश्वर। सुनिये!
    जिनेन्द्र वर्णी जी के शब्दो में : "गाय, मनुष्य, घट, पट आदि को अलग-अलग क्यों देखते हो? इनके भी अन्दर उतर जाइये। गाय व मनुष्य में चित्‌ मात्र को देखने पर गाय व मनुष्य का यह द्वैत कैसे ठहर सकता है, क्योंकि वह भी सच्चित्‌ और वह भी सच्चित्‌। गोत्व (गायपना) व मनुष्यत्व (मनुष्यपना) तो उस सच्चित्‌ के विकार मात्र से उत्पन्न होने वाले नाम और रूप हैं। इनकी क्या सत्ता है? इन सबमें जो व्याप कर रहता है उस सच्चित्‌ मात्र तत्व को देखिये, जो त्रिकाल एक है। अखण्ड है तथा नाम रूप कर्मो से अतीत है। ऐसी समष्टि में सच्चित्‌ तथा सत्‌ के अतिरिक्त यहां दिखाई ही क्या देता है? सच्चित्‌ व सत्‌ ऐसा द्वैत भी क्यों रहा है? सामान्य व अखण्ड रूप समष्टि में द्वैत को अवकाश कहां? कहा जा सकता है कि जो कुछ भी दृष्ट है वह सब नित्य, एक व अखण्ड सच्चित्‌ के अवयव हैं, उसके स्फ़ुलिंग हैं। वास्तव में सच्चित्‌ ही एक परमार्थ तत्व है। इसके भी अतिरिक्त जीवन्मुक्त व नित्यमुक्त जीवो में क्या दिखाई देता है -- सत्‌, चित्‌ व आनन्द। सत्‌, चित्त व आनन्द के अतिरिक्त उन मुक्त जीवो की पृथक, सत्ता समष्टि में कैसे दिखाई दे सकती है। पहले देखा था मात्र सत्‌ चित्‌ अब उसमें आनन्द और मिल गया। सत्‌ चित्‌ व आनन्द में सब कुछ समा गया। घट पट आदि सत्‌ मात्र है। मनुष्य आदि सत्‌ व चित्‌ हैं और मुक्त जीव सत्‌ चित्‌ व आनन्द हैं।" सच्चिदानन्द

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