रहस्यदर्शी (कविता) | धर्मराज
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- Опубліковано 26 лис 2024
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Aranyak is a platform, where free dialogue can take place on questions directly related to the life of meditation, relationship, love and sorrow. There is no urgency to reach a solution but to communicate, in that, learning the art of observing ourselves in such a skillful way that solutions keep coming out in daily life, bringing about a revolutionary change in the outlook of life.
About Dharmraj
Dharmraj’s role on the Aranyak stage is only that of a 'medium'. A 'medium' is someone who can lift curtains from the deepest questions of life. The medium has no fixed answer. After all, there are no fixed answers in the dynamic science of life. Here it would be appropriate to clarify that, 'medium' is not in any way talking about revealing or explaining what has been said by scriptures or suitable men or orating on something newly discovered. The medium is telling us to look at the thinking, the fear, at disharmony, at loneliness, at sorrow… all of which happen in our daily life. From the platform of Aranyak, the medium will share the art he has learnt of seeing 'what is' without errors, with his friends as well.
Dharmraj, a seeker of truth, was born in the rural areas of Uttar Pradesh. While passing through the ups and downs of life, he turned inward and drew from within the desire to know himself. Through various spiritual philosophies, he came in contact with the teachings of J. Krishnamurti. In his own words, he found in these teachings the clue to see life, to understand himself properly and to move towards the truth, which continues to be the deepest thirst in his soul.
आरण्यक शब्द का अर्थ होता है, ‘जो वन में घटित हो!’
‘आरण्यक’ नाम से यह मंच जीवन के निविड़ वन में साथ चलने हेतु ऐसे मित्रों के लिए आमंत्रण है, जो जहाँ एक तरफ़ जीवन के रहस्य को बस खेल खेल में उघाड़ने में उत्सुक हों, वहीं दूसरी तरफ़ वे प्रचंड गम्भीरता से जो सुख-दुःख से रचा पचा जीवन है, उसको उसकी परिपूर्णता में देखने समझने की प्यास से भी भरे हुए हों। भीतर के सोच विचार, भाव, उन सब के इकट्ठा चलने का ढंग साथ ही इन सब के बीच का वह ‘मैं’ जिसके इर्द गिर्द यह सब बुना जाता है, सबको एक साथ देखते जाते हों। अंतस जीवन का यह वन ऐसा है, जिसमें गहरे उतरने के लिए उत्तर और मानचित्र कितने भी शोध कर लाए गए हों, वे स्वीकार नहीं होते हैं। मात्र ताजे गहरे और गहराते जाते प्रश्न स्वीकृत होते हैं। उत्तर तो अज्ञात रूप से इस दर्शन अवलोकन से जीवन के आमूल रूपांतरण के रूप में स्वयं ही जीवन में घटित होता जाएगा।
धर्मराज जी से आए कुछ शब्द
आरण्यक मंच पर मेरी भूमिका एक ‘माध्यम’ मात्र की ही है। एक ऐसा ‘माध्यम’ जिस के साथ हम जीवन के गहरे से गहरे प्रश्नों पर से पर्दे उठा सकें। ‘माध्यम’ के पास कोई तय उत्तर नहीं है। जीवन के नित नूतन वितान में कोई भी तय उत्तर होते भी नहीं हैं। ‘माध्यम’ ऐसा है, जैसे एक त्रुटिहीन दूरदर्शी यंत्र। जैसे दूरदर्शी यंत्र के माध्यम से आकाश में क्षण क्षण परिवर्तित हो रही ग्रहों की चाल को पढ़ा जाता है। वे जैसी हैं, जो हैं, उन्हें वैसा का वैसा दूरदर्शी यंत्र दिखा देता है। फ़र्क़ इतना है कि, दूरदर्शी यंत्र बाहर ‘जो है’ वह दिखाता है, इस ‘माध्यम’ के साथ भीतर ‘जो है’ वह दिखता है। दूरदर्शी यंत्र पर तो फिर भी निर्भरता रहती है, जब भी आकाश में झाँकना होगा। लेकिन एक बार स्वयं को देखने की कला आ गई, फिर ‘माध्यम’ की कोई भूमिका नहीं रह जाती है। इस तरह देखने में कोई क्रांति घटित होती है, कोई नितांत रूप से अभिनव जीवन जगह लेता है। तो वह देखने वाले का अपना उद्योग है। उसमें ‘माध्यम’ की कोई भूमिका नहीं है।
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ॐ प्रणाम गुरूजी 🙏
🙏🏻Dhanyawaad Prabhuji🙏🏻🙂
Namah Shivay 🙏
सुंदर❤