श्रीमद् भगवद् गीता - अध्याय 6 ( आत्मसंयम योग ) -विस्तृत व्याख्या के साथ

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  • Опубліковано 6 лип 2024
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    भागवत गीता अध्याय 6: आत्मसंयम योग
    अध्याय 6, जिसे आत्मसंयम योग के नाम से भी जाना जाता है, भगवद गीता का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। इस अध्याय में, भगवान कृष्ण अर्जुन को आत्मसंयम के महत्व के बारे में सिखाते हैं, जो योग और मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक है।
    आत्मसंयम का अर्थ है इंद्रियों, मन और बुद्धि को नियंत्रित करना। यह कर्मयोग का अभ्यास करने और निष्काम कर्म करने की कुंजी है। निष्काम कर्म वह कर्म है जो फल की इच्छा के बिना किया जाता है।
    इस अध्याय में, भगवान कृष्ण आत्मसंयम प्राप्त करने के लिए विभिन्न तरीकों का वर्णन करते हैं, जिनमें शामिल हैं:
    इंद्रियों को नियंत्रित करना: हमें अपनी इंद्रियों को उन वस्तुओं से दूर रखना चाहिए जो हमें लुभाती हैं।
    मन को नियंत्रित करना: हमें अपने मन को भटकने से रोकना चाहिए और इसे एकाग्र करना चाहिए।
    बुद्धि को नियंत्रित करना: हमें अपनी बुद्धि का उपयोग अच्छे और बुरे के बीच अंतर करने के लिए करना चाहिए।
    योग का अभ्यास करना: योग का अभ्यास हमें आत्मसंयम प्राप्त करने में मदद कर सकता है।
    ईश्वर के प्रति समर्पण: हमें अपना जीवन ईश्वर को समर्पित करना चाहिए और उनकी इच्छा के अनुसार कार्य करना चाहिए।
    अध्याय 6 में, भगवान कृष्ण आत्मसंयम के कई लाभों का भी वर्णन करते हैं, जिनमें शामिल हैं:
    शांति और खुशी: आत्मसंयम हमें शांति और खुशी प्राप्त करने में मदद करता है।
    मानसिक स्पष्टता: आत्मसंयम हमें मानसिक स्पष्टता प्राप्त करने में मदद करता है।
    आत्म-साक्षात्कार: आत्मसंयम हमें आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने में मदद करता है।
    मोक्ष: आत्मसंयम हमें मोक्ष प्राप्त करने में मदद करता है।
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