28 June
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- Опубліковано 26 чер 2024
- ह्रदयस्थ परमात्मा सर्वांग में अनुभव गम्य है जब जीव को अपने कल्याण की भावना अंतर से प्रकट होती है तब (जिनवाणी)शब्द के सहकार रूप सर्वांग में ज्योति स्वरूप आत्म तत्व का प्रकाश झलक जाता है। एक समय निज शुद्धात्म देव की स्वीकारता की महिमा एक समय में अदेव,मिथ्या देव, कुदेव की मान्यता से ही दर्शनमोह के वशीभूत पर को अपना मानने में 70 कोड़ा कोड़ी बंधती है, और उसी एक समय मे रत्नात्रय से सुसज्जित अपने ज्ञायक स्वभाव का दर्शन करने पर जन्म मरण की पीड़ा मिट जाती है।
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🙏श्री ममलपाहुड़ जी ग्रंथाधिराज जहां आचार्यदेव देव दिप्ति फूलना के माध्यम से देव स्वरूप का प्रकाश कर रहे हैं, "आतम ही है देव निरंजन, आतम ही सद्गुरु भाई, आतम ही है धर्म आतम ही है शास्त्र, ऐसे आत्म स्वभाव, निरूपण कर रहे हैं और भव्य जीवों के अंदर जागरण कर रहे हैं हे भव्य जीव तेरे अंदर में तेरा देव स्वभाव विराजमान है, अपने अंदर में उस वीतराग स्वभाव को देख, सम भाव से दिप्ति विवान,दिस्टिविमान, शब्द विमान में बैठकर अपने आत्म अनुभव में रत रह, अपने अनंत चतुष्टयमय वीतराग पद को देख यही देवों का देव है।
🙏 गुरुदेव आप कह रहे हैं कि साधु उस परम इस्ट स्वभाव को,रत्नत्रयमय पद को, अनंत चतुष्टय में वीतराग सत्ता को स्वयं में अनुभव करते है। तो कहां अनुभव करते हैं वह परमात्मा मिलता कहां है? उसका अनुभव किस रूप में है? गुरुदेव कहते हैं कि वह परमात्मा हृदय में है यहीं है और सर्वांग से अनुभव गम्य है, सर्वांग से चैतन्यमय है, यहां मन बुद्धि का काम नहीं है, आत्मा सर्व आत्म प्रदेशों से शुद्ध ज्ञान दर्शनमय चैतन्य स्वभावी है। सम्यक ज्ञान के प्रकाश में प्रफुल्लित होता हुआ वह आत्मा "अंगदि अंगह दिपि दिस्ट मउ" सर्वांग में दर्शन ज्ञान ज्योति स्वरूप अनुभव में आएगा, देखो आत्मा सर्वांग से दर्शन ज्ञान स्वभाव वाला है, सम्यक ज्ञान की ज्योति से देखो सर्वांग में ज्ञान दर्शनमय वह स्वभाव झलक रहा है
🙏जीवात्मा संसार के मन बुद्धि के विकल्पों में डूबे हुए हो अपनी आत्मा को देखना चाहते हो? कहां मिलेगा कैसे मिलेगा कब मिलेगा यह शल्य शंकाएं छोड़ो,जब तक नाना प्रकार के विकल्प करोगे तब तक वह नहीं मिलेगा, गहरी निष्ठा करो गहरा विश्वास करो वह चैतन्य ज्योतिमय परमात्मा,वह परम तत्व मेरा ही स्वभाव है, जब अपने अंतर में ही अपने स्वभाव को, देव पद को स्वीकार करोगे तो वह दर्शन ज्ञान की ज्योति स्वरूप सर्वांग आत्म प्रदेशों से अनुभव में आएगा। आत्मा के सर्वांग प्रदेश दर्शन ज्ञानमय हैं, आनंद मय हैं यह आत्मा चैतन्य ज्ञान स्वभावी भगवान आत्मा है इसमें पर पर्याय परिणमन है ही नहीं सर्वांग से शुद्ध है, ज्ञानी साधक सर्वांग में ऐसे शुद्ध आत्म तत्व का अनुभव करते हैं।
🙏भगवान की अमृतमय दिव्य ध्वनि जब हृदय कंठ में अनंत वीर्य के रूप में समाई कि तू ही सिद्ध है तू ही शुद्ध है तू ही मुक्त है, "सब्द हिययार संजुत्तु" जब अपने कल्याण करने की, शुद्ध स्वभाव का अनुभव करने की भावना अपने अंतरंग में आई, तब वह परम आनंद अंगदि अंग सर्वांग से प्रकट हो गया, जिनेंद्र परमात्मा की यह वाणी यह द्रव्य श्रुत जिससे भाव अनुभूति रूप अपन आत्म तत्व का वेदन कर रहे हैं। "हिययार संजुत्तु"जब मैंने जाना कि मेरे हृदय में ही सर्वांग से शुद्ध मेरा वीतराग तत्व, मेरा ज्ञायक तत्व भगवान आत्मा है, जब अपनी दृष्टि में उस तत्व को देखा तो शब्द के सहकार रूप वह वीतराग परमात्मा अपने स्वभाव में झलक गया, आत्म चिंतन में झलक गया, स्वानुभूति में झलक गया, कहां झलका ? सर्वांग में ज्ञान दर्शन ज्योति स्वरूप। पुरुषार्थ करोगे, जिनवाणी को आश्रय बनाओगे तो दिखाई देगा। और यदि व्यर्थ में दूसरों को सलाह बांटोगे यहां वहां की विकथा करोगे तो निरंतर पाप कर्म का आश्रव होगा, और ऐसे नीच गोत्र कर्म बांध लोगे, ऐसे अनिष्ट कर्म बांध लोगे कि अनंत कोड़ा कोड़ी सागर तक अनंत संसार में ही भटकते रहोगे।
🙏यह आत्मा चार गति 84 लाख योनियों से मुक्त क्यों नहीं हो पा रहा? एक समय मिथ्या की मान्यता की यह मेरा है तो 70 कोडाकोड़ी की जेल, एक समय पर में,अदेव में देव मानकर सर झुकाओ, मान्यता करो कि यह एक इंद्रिय पर्याय देव है और उसकी वंदना करो तो क्या फल मिलेगा? दर्शन मोहिनीय कर्म का आश्रव होगा और 70 कोड़ा कोड़ी सागर तक के कर्म बांधकर भव भवांतर तक के लिए जीव संसार में भटकता रहेगा और यदि एक समय के लिए पर से देवत्व की मान्यता तोड़कर अपने हृदय में जो सर्वांग से दर्शन ज्ञान ज्योति स्वरूप है उस देव को देखोगे, जिनेंद्र परमात्मा की वाणी को अपने हृदय में धारण करोगे कि तू ही आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा है, और अपने ज्ञायक तत्व की अनुभूति का मार्ग बनाओगे तो यह अपने चैतन्य तत्व की अनुभूति तुम्हारे निर्वाण में कारण बन जाएगी।
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*🙏 मोह ही शत्रु है इसलिए गुरुदेव कह रहे हैं कि कम से कम तुम देव के नाम पर तो मत भटको, यदि मोह करना है तो अपने देव पद से मोह करो कि मैं अरिहंत सिद्ध के समान हूं, मोह करना है तो अपने आत्म स्वभाव का मोह करो, राग करना है तो अपने आत्म स्वभाव से राग करो, द्वेष करना है तो अज्ञान भाव से द्वेष करो। और प्रीति करना है तो चैतन्य में स्वभाव में प्रकाशित, ज्ञान स्वभाव में झलकते हुई आत्मा के अनंत गुणों से प्रीति करो। अब तो "अर्थ तिअर्थ" अपने प्रयोजनीय रत्नत्रय स्वभाव की साधना करो, "जु कमल रुइ" अपने ज्ञायक स्वभाव की रुचि जगाओ, अब तो स्वीकार करो कि मेरे हृदय में विराजमान अंग अंग से शुद्ध दर्शन ज्ञान ज्योतिर्मय मेरा स्वभाव रत्नत्रय से शुद्ध है, यही प्रयोजनीय है। "गिर दिप्त दिस्टि संजुत्तु"जिनवाणी का चिंतन मनन करते हुए, दर्शन ज्ञान की ज्योति से संयुक्त रहो, अपने निज शुद्धात्म देव का दर्शन करो तो अनंत जन्म मरण की पीड़ा मिट जाएगी और देव दिप्ति का प्रकाश हो जाएगा।
जय हो जय हो जय हो अम्रतमयी शुद्ध जिनदेशना की जय हो जय हो जय हो कोटि कोटि अनुमोदना है अनुमोदना है अनुमोदना है 🙏🙏🙏🙏👏
Jay Ho Jay Ho Jay Ho koti koti anumodna hai
जय हो जय हो में इन कर्म कलंको से भिन्न वीतराग ममलह ममल स्वभावी चैतन्य तत्व भगवान आत्मा ही मात्र हूं हूं हूं हूं हूं हूं 🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
जय हो
जय हो जय हो जय हो 🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
जय हो बहुत ही आनंद मय देशना🙏🏻🙏🏻🙏🏻
जीव मात्र ही भगवान आतमा लक्षय मे स्वयं आतम कल्याण
निज आत्मा ही देव है जो गुण अनंत निधान है
मैं स्वानुभव मे देख लू आतम स्वयं भगवान् है