वृक्षन से पाती झड़ी पड़ी धूल में आय । जोबन था सब झड़ गया दिन दिन सूखी जाय ॥१॥ जब लग लागी वृक्ष से झूमे मगन अकाश । न्यारी हो मारी फिरे दह दिस पवन की दास । २। जब लग लागी वृक्ष से सीतल छाया देय । न्यारा हो ईंधन भई अगिन देय होय खेह ॥३॥ जब लग लागी वृक्ष से पिव की प्यारी पात । न्यारी हो दुर्गन्धिनी सड़े पड़ी होय खात ॥४॥ सतगुरु संग न छोड़ियो रे मन जब लग प्रान । सँग छूटे होय हाल तुम टूटी पात समान ॥५॥ सतगुरु सँग लागे रहे हरा भरा रहे गात । प्रेम प्रीति घट में बसें शील सुमति सिर माथ ।।६।। जो मन गुरु सँग प्रीति है तो चिन्ता मत मान । सहजहि सतगुरु सँग मिले बिरह खोज का दान ॥७॥ या जग में हम देखिया एक अचम्भा आय । सतगुरु सँग न चाहते सतगुरु भक्त कहाय ॥८॥ नाम गुरू का लेत हैं महिमा गुरु की गाय । सतगुरु सँग की बात सुन पर ढीले पड़ जायँ ॥६॥ मीना' ऐसी ना सुनी चहे न जल का संग । पंछी ऐसा ना सुना करे पवन से जंग ॥१०॥ ऐसा सूम न भेंटिया धन सँग जो नहिं चाय। भूखा अस कोइ ना मिला भोजन से घबराय ॥११॥ सुन सुन के नित होत है यही अचम्भा मोहि । कौम रक्क्रम गुरुभक्रि यह बिन सतगुरु जो होय ।।१२।। सोच समझ निश्चय किया यह मन अपने माहिं । अस गति उनकी होति है जिन गुरु प्रीती नाहिं ॥१३॥ घाटा गुरु की प्रीति का पुरे न मुख के बोल । बाहर पानी के पड़े भरा न देखा डोल ॥१४॥ साँचा होय गुरु संग कर नैनश्रवन दोउ खोल । हानि लाभ चिन्ता मिटे मिले बस्तु अनमोल ॥१५॥ R.S
वृक्षन से पाती झड़ी
पड़ी धूल में आय ।
जोबन था सब झड़ गया
दिन दिन सूखी जाय ॥१॥
जब लग लागी वृक्ष से
झूमे मगन अकाश ।
न्यारी हो मारी फिरे
दह दिस पवन की दास । २।
जब लग लागी वृक्ष से
सीतल छाया देय ।
न्यारा हो ईंधन भई
अगिन देय होय खेह ॥३॥
जब लग लागी वृक्ष से
पिव की प्यारी पात ।
न्यारी हो दुर्गन्धिनी
सड़े पड़ी होय खात ॥४॥
सतगुरु संग न छोड़ियो
रे मन जब लग प्रान ।
सँग छूटे होय हाल तुम
टूटी पात समान ॥५॥
सतगुरु सँग लागे रहे
हरा भरा रहे गात ।
प्रेम प्रीति घट में बसें
शील सुमति सिर माथ ।।६।।
जो मन गुरु सँग प्रीति है
तो चिन्ता मत मान ।
सहजहि सतगुरु सँग मिले
बिरह खोज का दान ॥७॥
या जग में हम देखिया
एक अचम्भा आय ।
सतगुरु सँग न चाहते
सतगुरु भक्त कहाय ॥८॥
नाम गुरू का लेत हैं
महिमा गुरु की गाय ।
सतगुरु सँग की बात सुन
पर ढीले पड़ जायँ ॥६॥
मीना' ऐसी ना सुनी
चहे न जल का संग ।
पंछी ऐसा ना सुना
करे पवन से जंग ॥१०॥
ऐसा सूम न भेंटिया धन
सँग जो नहिं चाय।
भूखा अस कोइ ना मिला
भोजन से घबराय ॥११॥
सुन सुन के नित होत है
यही अचम्भा मोहि ।
कौम रक्क्रम गुरुभक्रि यह
बिन सतगुरु जो होय ।।१२।।
सोच समझ निश्चय किया
यह मन अपने माहिं ।
अस गति उनकी होति है
जिन गुरु प्रीती नाहिं ॥१३॥
घाटा गुरु की प्रीति का
पुरे न मुख के बोल ।
बाहर पानी के पड़े
भरा न देखा डोल ॥१४॥
साँचा होय गुरु संग कर
नैनश्रवन दोउ खोल ।
हानि लाभ चिन्ता मिटे
मिले बस्तु अनमोल ॥१५॥
R.S