टोपी शुक्ला राही मासूम रज़ा Topi Shukla Rahi Masoom Raza CLASS 10th CBSE HINDI COURSE B
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- Опубліковано 6 лют 2025
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Topi Shukla Chapter Summary
Topi Shukla Summary - प्रस्तुत पाठ में लेखक टोपी की कहानी पाठकों को सुनाना चाहते हैं। इसलिए लेखक कहता है कि वह इफ़्फ़न की कहानी पूरी नहीं सुनाएगा बल्कि केवल उतनी ही सुनाएगा जितनी टोपी की कहानी के लिए उसे जरुरी लग रही है। इफ़्फ़न टोपी की कहानी का एक ऐसा हिस्सा है जिसके बिना शायद टोपी की कहानी अधूरी है। ये दोनों लेखक की कहानी के दो चरित्र हैं। एक का नाम बलभद्र नारायण शुक्ला है और दूसरे का नाम सय्यद जरगाम मुरतुज़ा। एक को सभी प्यार से टोपी कह कर पुकारते हैं और दूसरे को इफ़्फ़न।
इफ़्फ़न की दादी पूरब की रहने वाली थी। नौ या दस साल की थी जब उनकी शादी हुई और वह लखनऊ आ गई, परन्तु जब तक ज़िंदा रही, वह पूरब की ही भाषा बोलती रही। लखनाऊ की उर्दू तो उनके लिए ससुराल की भाषा थी। उन्होंने तो मायके की भाषा को ही गले लगाए रखा था क्योंकि उनकी इस भाषा के सिवा उनके आसपास कोई ऐसा नहीं था जो उनके दिल की बात समझ पाता। जब उनके बेटे की शादी के दिन आए तो गाने बाजाने के लिए उनका दिल तड़पने लगा, परन्तु इस्लाम के आचार्यों के घर गाना-बजाना भला कैसे हो सकता था? बेचारी का दिल उदास हो गया। लेकिन इफ़्फ़न के जन्म के छठे दिन के स्नान/पूजन/उत्सव पर उन्होंने जी भरकर उत्सव मना लिया था।
लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी किसी इस्लामी आचार्य की बेटी नहीं थी बल्कि एक जमींदार की बेटी थी। दूध-घी खाती हुई बड़ी हुई थी परन्तु लखनऊ आ कर वह उस दही के लिए तरस गई थी। जब भी वह अपने मायके जाती तो जितना उसका मन होता, जी भर के खा लेती। क्योंकि लखनऊ वापिस आते ही उन्हें फिर मौलविन बन जाना पड़ता।
इफ़्फ़न को अपनी दादी से बहुत ज्यादा प्यार था। प्यार तो उसे अपने अब्बू, अम्मी, बड़ी बहन और छोटी बहन नुज़हत से भी था परन्तु दादी से वह सबसे ज्यादा प्यार किया करता था। अम्मी तो कभी-कभार इफ़्फ़न को डाँट देती थी और कभी-कभी तो मार भी दिया करती थी। बड़ी बहन भी अम्मी की ही तरह कभी-कभी डाँटती और मारती थी। अब्बू भी कभी-कभार घर को न्यायालय समझकर अपना फैसला सुनाने लगते थे। नुजहत को जब भी मौका मिलता वह उसकी कापियों पर तस्वीरें बनाने लगती थी। बस एक दादी ही थी जिन्होंने कभी भी किसी बात पर उसका दिल नहीं दुखाया था। वह रात को भी उसे बहराम डाकू, अनार परी, बारह बुर्ज, अमीर हमज़ा, गुलबकावली, हातिमताई, पंच फुल्ला रानी की कहानियाँ सुनाया करती थी।
इफ़्फ़न की दादी की बोली टोपी के दिल में उतर गई थी, उसे भी इफ़्फ़न की दादी की बोली बहुत अच्छी लगती थी। इफ़्फ़न की दादी टोपी को अपनी माँ की पार्टी की दिखाई दी कहने का अर्थ है टोपी की माँ और इफ़्फ़न की दादी की बोली एक जैसी थी। टोपी को अपनी दादी बिलकुल भी पसंद नहीं थी। उसे तो अपनी दादी से नफ़रत थी। वह पता नहीं कैसी भाषा बोलती थी। टोपी को अपनी दादी की भाषा और इफ़्फ़न के अब्बू की भाषा एक जैसी लगती थी। लेखक कहता है कि टोपी जब भी इफ़्फ़न के घर जाता था तो उसकी दादी के ही पास बैठने की कोशिश करता था। टोपी को इफ़्फ़न की दादी का हर एक शब्द शक़्कर की तरह मिठ्ठा लगता था। पके आम के रस को सूखाकर बनाई गई मोटी परत की तरह मज़ेदार लगता। तिल के बने व्यंजनों की तरह अच्छा लगता था। लेखक कहता है कि इफ़्फ़न की दादी टोपी से हमेशा एक ही सवाल पूछ कर बात आगे बढ़ती थी कि उसकी अम्माँ क्या कर रही है। पहले-पहले तो टोपी को समझ में नहीं आया कि ये अम्माँ क्या होता है परन्तु बाद-बाद में उसे समझ में आ गया कि माता जी को ही अम्माँ कहा जाता है। जब टोपी ने अम्माँ शब्द सुना तो उसे यह शब्द बहुत अच्छा लगा। जिस तरह गुड़ की डाली को मुँह में रख कर उसके स्वाद का आनंद लिया जाता है उसी तरह वह इस शब्द को भी बार-बार बोलता रहा। “अम्माँ”। “अब्बू”। “बाजी”। उसे ये शब्द बहुत पसंद आए।
एक दिन टोपी को बैंगन का भुरता ज़रा ज्यादा अच्छा लगा। रामदुलारी (टोपी की माँ) खाना परोस रही थी। टोपी ने कह दिया कि अम्मी, ज़रा बैंगन का भुरता। अम्मी! यह शब्द सुनते ही मेज़ पर बैठे सभी लोग चौंक गए, उनके हाथ खाना खाते-खाते रुक गए। वे सभी लोग टोपी के चेहरे की ओर देखने लगे। टोपी की दादी सुभद्रादेवी तो उसी वक्त खाने की मेज़ से उठ गई थी और टोपी की माँ रामदुलारी ने टोपी को फिर बहुत मारा ।
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