1857 दो मुग़ल शहज़ादे,जिनको बचाया एक सिख़ रिसालदार ने! do mughal shahzade jinhe bachaya ek sikh ne !

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  • Опубліковано 16 жов 2024
  • @दोशहज़ादों को सिख रिसालदार ने बचाया
    लेकिन बहादुर शाह ज़फ़र के दो बेटे मिर्ज़ा अब्दुल्लाह और मिर्ज़ा क्वैश अंग्रेज़ों के चंगुल से भाग निकलने में कामयाब हो गए.
    दिल्ली की मौखिक कहानियों को जिन्हें उर्दू लेखक अर्श तैमूरी ने बीसवीं सदी के आरंभ में अपनी किताब 'किला ए मुअल्ला की झलकियों' में रिकॉर्ड किया था, में बताया गया था कि 'दोनों मुग़ल शहज़ादों को एक सिख रिसालदार की देखरेख में हुमांयु के मकबरे में रखा गया था.
    उस रिसालदार को इन शहज़ादों पर रहम आ गया. उसने उनसे पूछा कि तुम यहाँ क्यों खड़े हो? उन्होंने जवाब दिया कि साहिब ने हमें वहाँ खड़े होने के लिए कहा है.
    उस सिख ने उन्हें घूरते हुए कहा अपनी ज़िदगी पर रहम खाओ. जब वो अंग्रेज़ लौटेगा तो तुम्हें पक्का मार डालेगा. तुम जिस दिशा में भाग सकते हो भागो और साँस लेने के लिए भी न रुको. ये कहकर उस रिसालदार ने अपनी पीठ उनकी तरफ़ कर ली.
    दोनों शहज़ादे अलग अलग दिशाओं में दौड़ पड़े.' बाद में मीर क्वाएश किसी तरह फ़कीर के भेष में उदयपुर पहुंचने में सफल हो गए जहाँ के महाराजा ने उन्हें संरक्षण देते हुए दो रुपए रोज़ के वेतन पर अपने यहाँ रख लिया. हॉडसन ने क्वाएश को ढ़ूढ़ने में एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया लेकिन उसे सफलता नहीं मिल सकी.
    बहादुर शाह ज़फ़र का दूसरा बेटा अब्दुल्ला भी अंग्रेज़ों के हाथ नहीं लगा और उसने अत्यंत ग़रीबी में अपनी पूरी ज़िदगी टोंक रियासत में बिताई. बहादुर शाह के बाकी बेटों को या तो फाँसी दे दी गई या काला पानी में लंबी सज़ा काटने के लिए भेज दिया गया.
    कुछ शहज़ादों को आगरा. कानपुर और इलाहाबाद की जेलों में बहुत कठिन परिस्थितियों में रखा गया जहाँ दो वर्ष के भीतर ही इनमें से अधिक्तर की मौत हो गई. अंग्रेज़ों ने बहादुर शाह ज़फ़र को न मारने के अपने वादे को पूरा किया. उन्हें दिल्ली से बहुत दूर बर्मा भेज दिया गया जहाँ 7 नवंबर, 1862 की सुबह 5 बजे उन्होंने अंतिम साँस ली.

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