मानिनी ! कौन तिहारी बान। MANINI ! KOUN TIHARI BAAN | JAGADGURU SHREE KRIPALU JI MAHARAJ

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  • Опубліковано 8 лип 2024
  • मानिनी ! कौन तिहारी बान।
    भरी गुमान तान दोउ भृकुटिन, छिन छिन ठानति मान।
    रस महँ विरस करत निशि-वासर, करि करि उर अभिमान।
    तलफत ज्यों जल-हीन मीन त्यौं, तुम बिनु कान्ह सुजान।
    आरत बने पुकारत, हारत, कुंज-लतान-पतान ।
    भईं 'कृपालु' निठुर कब ते तुम, तोहिं सरल सब जान।।
    भावार्थ - (रूठी हुई किशोरी जी को मनाती हुई ललिता कहती है।)
    हे किशोरी जी ! यह तुम्हारी कौन सी बात है? बार-बार भौंहों को ताने हुए अभिमान के सहित मान किया करती हो। निरन्तर ही इस प्रकार अभिमान कर-करके मधुर-मिलन-रस में कटु वियोग विष को घोला करती हो, जिसके परिणाम- स्वरूप तुम्हारे वियोग में जलहीन मछली की तरह प्यारे श्यामसुन्दर तड़पा करते हैं। हे किशोरी जी ! वे प्रियतम अधीर होकर निकुंज लताओं में तुम्हें पुकारते-पुकारते थक जाते हैं। 'कृपालु' कहते हैं कि तुम्हें तो सारा संसार सरल एवं भोली जानता है। तुम कठोर हृदय वाली कब से बन गईं कि तुम्हें प्राणप्यारे के लिए भी दया नहीं आती, तुम्हें तो सभी सरल स्वभाव वाली समझते थे।
    प्रेम रस मदिरा - मान माधुरी - 47
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