आज के समय के लिए सबसे महत्वपूर्ण संदेश या गीता के बारे में स्पष्ट जानकारी देते हुए। सिन्हा जी वर्तमान समय में बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं और उनको बहुत कम समय मिला आपके साथ लेकिन संतोष की बात है आपने कुछ समय उनके साथ क्या बिताया इससे ही बहुत अच्छा धर्म को जानने में मदद मिलती है।
भारत की इतनी हारें इसीलिए हुईं जब धर्म दर्शन से हटकर पुराणों, कहानियों, कल्पनाओं, अंधविश्वासों पर चलने लगा धर्म अगर है तो गीता उपनिषद शून्य वाद ही हो सकता है l मानव सभ्यता के विकास में ये तीनों तल सम्भव रहे हैं कल्पना/कहानियां/ प्रतिभाषिक, तथ्य/वैज्ञानिक/व्यवहारिक, आध्यात्मिक/पारमार्थिक लेकिन हमेशा से हम सबसे निचले; कल्पना के तल पर ही रहना चाहते हैं l जंगल से मानव तो निकल गया लेकिन, जंगल हमारे भीतर से नहीं निकल पा रहा
गीता को शून्यवाद नहीं कहा जा सकता, क्योंकि गीता और शून्यवाद के दर्शन और सिद्धांत पूरी तरह अलग हैं। गीता का आधार भक्ति, ज्ञान और कर्मयोग है, जबकि शून्यवाद बौद्ध दर्शन का एक प्रमुख सिद्धांत है, जो संसार और वस्तुओं की शून्यता पर बल देता है। गीता: शून्यवाद नहीं है गीता और शून्यवाद में कई मौलिक अंतर हैं, जैसे: • गीता आध्यात्मिकता और भक्ति पर आधारित है, जबकि शून्यवाद दार्शनिक शून्यता पर। • गीता में आत्मा और परमात्मा का संबंध महत्वपूर्ण है, जबकि शून्यवाद आत्मा के अस्तित्व को ही अस्वीकार करता है। • गीता जीवन जीने का एक सकारात्मक दृष्टिकोण देती है, जबकि शून्यवाद संसार को त्यागने और शून्यता को अपनाने की बात करता है।
@Naveen-rm7fx गीता को शून्य वाद नहीं बोला जा रहा l बस यह कोशिश है कि साफ़ धर्म जिसका लक्ष्य दुख से मुक्ति हो, जिज्ञासा- प्रश्न के माध्यम से l ना कि रूढ़ियां, अंधविश्वास, लाल अच्छा पीला बुरा, आज का दिन अच्छा वो दिन बुरा/ अशुभ l बस वो कुछ उदाहरण थे जहां जिज्ञासा है, प्रश्न उत्तर है l न कि बस बोल देना की इस किताब में ये लिखा तो सही ही है या गलत ही हैl शून्य वाद में प्रश्न करने वाला भी शून्य है मतलब उसकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है l बिना किसी का सहारा लिए उसका अस्तित्व नहीं हो सकता l और आत्मा या सत्य को ऐसे ही परिभाषित किया जाता है कि जिसके बारे में न बोला, सुना, सोचा जा सकता, जो प्रकृति यानी हमारी इन्द्रियों के संज्ञान में नहीं आ सकता l एकम् सत्य विप्रा बहुधा वदन्ति कभी ऐसे भी बोला जाएगा- एक ओंकार सतनाम ... कभी अहम् ब्रह्मास्मि कभी अनल हक
आज के समय के लिए सबसे महत्वपूर्ण संदेश या गीता के बारे में स्पष्ट जानकारी देते हुए।
सिन्हा जी वर्तमान समय में बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं और उनको बहुत कम समय मिला आपके साथ लेकिन संतोष की बात है आपने कुछ समय उनके साथ क्या बिताया इससे ही बहुत अच्छा धर्म को जानने में मदद मिलती है।
Shri guru dev charan sparsh
Maharaj vidhwan Guruji ki jai
बहुत अच्छा लग रहा है बाबा जी को देख कर बहुत समय के बाद।। बहुत सिखा कर गए ये मुझे तो।। अच्छा लगता है मुझे सुनना इनको।।
गीता का कर्म मार्ग सबसे उत्तम और अनुकरणीय है
प्रणाम श्री चरणों में
Pranam guruji
🙏 प्रणाम गुरु जी 🙏
Ati aabhar...🎉
गुरु महाराज की जय हो बाबा ❤
🎉🎉Radhe🎉🎉Radhe🎉🎉
❤❤❤
हर हर महादेव 🙏
,🙇🙇🙏🙇🙇
कृपया हमें आप यह बता सकते हैं कि डॉ साहब दार्शनिक धरातल पर किस दर्शन को मानते हैं और किस प्रमाणिक परम्परा से आते हैं?, कृपया बताने की कृपा करें🙏🏻
भारत की इतनी हारें इसीलिए हुईं जब धर्म दर्शन से हटकर पुराणों, कहानियों, कल्पनाओं, अंधविश्वासों पर चलने लगा
धर्म अगर है तो गीता उपनिषद शून्य वाद ही हो सकता है l
मानव सभ्यता के विकास में ये तीनों तल सम्भव रहे हैं कल्पना/कहानियां/ प्रतिभाषिक, तथ्य/वैज्ञानिक/व्यवहारिक, आध्यात्मिक/पारमार्थिक
लेकिन हमेशा से हम सबसे निचले; कल्पना के तल पर ही रहना चाहते हैं l
जंगल से मानव तो निकल गया लेकिन, जंगल हमारे भीतर से नहीं निकल पा रहा
गीता को शून्यवाद नहीं कहा जा सकता, क्योंकि गीता और शून्यवाद के दर्शन और सिद्धांत पूरी तरह अलग हैं। गीता का आधार भक्ति, ज्ञान और कर्मयोग है, जबकि शून्यवाद बौद्ध दर्शन का एक प्रमुख सिद्धांत है, जो संसार और वस्तुओं की शून्यता पर बल देता है।
गीता: शून्यवाद नहीं है
गीता और शून्यवाद में कई मौलिक अंतर हैं, जैसे:
• गीता आध्यात्मिकता और भक्ति पर आधारित है, जबकि शून्यवाद दार्शनिक शून्यता पर।
• गीता में आत्मा और परमात्मा का संबंध महत्वपूर्ण है, जबकि शून्यवाद आत्मा के अस्तित्व को ही अस्वीकार करता है।
• गीता जीवन जीने का एक सकारात्मक दृष्टिकोण देती है, जबकि शून्यवाद संसार को त्यागने और शून्यता को अपनाने की बात करता है।
@Naveen-rm7fx गीता को शून्य वाद नहीं बोला जा रहा l बस यह कोशिश है कि साफ़ धर्म जिसका लक्ष्य दुख से मुक्ति हो, जिज्ञासा- प्रश्न के माध्यम से l
ना कि रूढ़ियां, अंधविश्वास, लाल अच्छा पीला बुरा, आज का दिन अच्छा वो दिन बुरा/ अशुभ l
बस वो कुछ उदाहरण थे जहां जिज्ञासा है, प्रश्न उत्तर है l न कि बस बोल देना की इस किताब में ये लिखा तो सही ही है या गलत ही हैl
शून्य वाद में प्रश्न करने वाला भी शून्य है मतलब उसकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है l बिना किसी का सहारा लिए उसका अस्तित्व नहीं हो सकता l
और आत्मा या सत्य को ऐसे ही परिभाषित किया जाता है कि जिसके बारे में न बोला, सुना, सोचा जा सकता, जो प्रकृति यानी हमारी इन्द्रियों के संज्ञान में नहीं आ सकता l
एकम् सत्य विप्रा बहुधा वदन्ति
कभी ऐसे भी बोला जाएगा- एक ओंकार सतनाम
... कभी अहम् ब्रह्मास्मि कभी अनल हक
आपकी राय तर्कसंगत है। मुझे भी कुछ ऐसा ही लगता है।
🙏🙏🙏 प्रणाम गुरु जी 🙏🙏🙏