Sharan Gautam Ki Ajao II शरण गौतम की आजाओ II मीनू श्रीवास्तव

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  • Опубліковано 17 вер 2024
  • Sharan Gautam Ki Ajao II शरण गौतम की आजाओ II
    Singer : Meenu Shrivastav Ji
    Chorus : Ankit Shakya, Shaumya Shakya
    Music : Chandan Deewana JI
    Recording : Dinesh Priyadarshi
    Location : Shakyamuni Buddha Vihar Jasarajpur Sakisa U.P.
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    Label & Copyright ©:- Sugat Cassettes
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    आर्यसत्य बौद्ध दर्शन के मूल सिद्धांत है।
    आर्यसत्य चार हैं-
    (1) दुःख : संसार में दुःख है,
    (2) समुदय : दुःख के कारण हैं,
    (3) निरोध : दुःख के निवारण हैं,
    (4) मार्ग : निवारण के लिये अष्टांगिक मार्ग हैं।
    प्राणी जन्म भर विभिन्न दु:खों की शृंखला में पड़ा रहता है, यह दु:ख आर्यसत्य है। संसार के विषयों के प्रति जो तृष्णा है वही समुदय आर्यसत्य है। जो प्राणी तृष्णा के साथ मरता है, वह उसकी प्रेरणा से फिर भी जन्म ग्रहण करता है। इसलिए तृष्णा की समुदय आर्यसत्य कहते हैं। तृष्णा का अशेष प्रहाण कर देना निरोध आर्यसत्य है। तृष्णा के न रहने से न तो संसार की वस्तुओं के कारण कोई दु:ख होता है और न मरणोंपरांत उसका पुनर्जन्म होता है। बुझ गए प्रदीप की तरह उसका निर्वाण हो जाता है। और, इस निरोध की प्राप्ति का मार्ग आर्यसत्य - आष्टांगिक मार्ग है। इसके आठ अंग हैं-
    1 सम्यक् दृष्टि,
    2 सम्यक् संकल्प,
    3 सम्यक् वचन,
    4 सम्यक् कर्म,
    5 सम्यक् आजीविका,
    6 सम्यक् व्यायाम,
    7 सम्यक् स्मृति
    8 सम्यक् समाधि।
    इस मार्ग के प्रथम दो अंग प्रज्ञा के और अंतिम तीन समाधि के हैं। बीच के तीन शील के हैं। इस तरह शील, समाधि और प्रज्ञा इन्हीं तीन में आठों अंगों का सन्निवेश हो जाता है। शील शुद्ध होने पर ही आध्यात्मिक जीवन में कोई प्रवेश पा सकता है। शुद्ध शील के आधार पर मुमुक्षु ध्यानाभ्यास कर समाधि का लाभ करता है और समाधिस्थ अवस्था में ही उसे सत्य का साक्षात्कार होता है। इसे प्रज्ञा कहते हैं, जिसके उद्बुद्ध होते ही साधक को सत्ता मात्र के अनित्य, अनाम और दु:खस्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है। प्रज्ञा के आलोक में इसका अज्ञानांधकार नष्ट हो जाता है। इससे संसार की सारी तृष्णाएं चली जाती हैं। वीततृष्ण हो वह कहीं भी अहंकार ममकार नहीं करता और सुख दु:ख के बंधन से ऊपर उठ जाता है। इस जीवन के अनंतर, तृष्णा के न होने के कारण, उसके फिर जन्म ग्रहण करने का कोई हेतु नहीं रहता। इस प्रकार, शील-समाधि-प्रज्ञावाला मार्ग आठ अंगों में विभक्त हो आर्य आष्टांगिक मार्ग कहा जाता है।
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