*ब्रह्म शब्द का पर्यायवाची शब्द ही,जगत शब्द है।* *********************** *योगवाशिष्ठ रामायण के, उत्पत्ति प्रकरण के,प्रथम अध्याय के,17 वें श्लोक में, वशिष्ठ जी ने, श्रीराम जी को,जगत शब्द को,ब्रह्म शब्द का पर्यायवाची शब्द बताते हुए कहा कि -* *यथा कटक शब्दार्थ: पृथक्त्वार्हो न कांचनात्।* *न हेमकटकात् तद्वत् जगच्छब्दार्थतापरे।।* वशिष्ठ जी ने कहा कि - हे रघुनन्दन! जैसे,स्वर्ण से निर्मित *कटक अर्थात कंगन* आदि आभूषण, *कांचन अर्थात स्वर्ण* से पृथक नहीं कहा जाता है,स्वर्ण और कटक के ऐक्यस्वरूप के समान ही,जगत शब्द,ब्रह्म शब्द से पृथक नहीं कहा जा सकता है। इसीलिए ब्रह्म और जगत, दोनों ही एक तत्त्व ही हैं। जगत को ही ब्रह्म कहते हैं, और ब्रह्म को ही जगत कहते हैं। वास्तव में, *बृहत् अर्थात सबसे अधिक को ही"ब्रह्म" कहते हैं।* जगत की बृहत्ता ही ब्रह्म है। ब्रह्म,जिस जगत में व्यापक है,वह जगत भी ब्रह्म ही है। आइए! सर्वप्रथम कटक के दृष्टान्त में,जगत के स्वरूप का ही विचार करते हैं। *यथा कटक शब्दार्थ: पृथक्त्वार्हो न कांचनात्।।* *शब्दार्थ अर्थात,जिस शब्द से,जिस पदार्थ के लिए कहा जाता है,वह पदार्थ ही उस शब्द का अर्थ कहा जाता है।* *जैसे - वृक्ष,एक शब्द है। वृक्ष शब्द से कहा जानेवाला "मूल से लेकर,शाखावाली आकृति ही,वृक्ष शब्द का अर्थ है।* इसी प्रकार,कटक शब्द का अर्थ एक,प्रकार का आकृतिवाला आभूषण है। वह कांचन अर्थात स्वर्ण से ही निर्मित होता है। इसीलिए,स्वर्ण का ही नाम,कटक है। जैसे - मृत्तिका से बनीं हुईं अनन्त वस्तुओं के नाम तो, अनन्त प्रकार के हो सकते हैं, किन्तु मृत्तिका से पृथक नहीं हो सकते हैं। *ये तो हुआ दृष्टान्त,अब दार्ष्टान्त देखिए!* *न हेमकटकात् तद्वत् जगच्छब्दार्थतापरे।* *जैसे,हेम अर्थात सुवर्ण,कटक अर्थात सुवर्णाभूषण, इन दोनों को पृथक अर्थात भिन्न भिन्न जाति के नहीं कह सकते हैं।* *जगच्छब्दार्थतापरे।* *जगत, शब्दार्थतापर अर्थात जगत शब्द के अर्थ की जो अर्थता है,वही अर्थपरायण ब्रह्म,शब्द भी है।* अब थोड़ी जगत शब्द से ब्रह्म शब्द की,अर्थ परता देखिए। जब किसी विशाल आकार की वस्तु को,किसी में स्थित करना होता है, तो जिसमें स्थित करना है,वह भी विशाल आकार की ही वस्तु होगी। जिस पात्र में, *हस्ती अर्थात हाथी* को बैठाना है तो,हाथी जैसे विशालकाय प्राणी को,बैठाने के लिए,वह पात्र भी विशाल ही होगा। जिसको आप *"ब्रह्म अर्थात सर्वाधिक बृहत्,विशाल, कहते हैं,वह सर्वाधिक विशाल बृहत् ब्रह्म,जगत में व्याप्त है।* जिस जगत में,ब्रह्म व्याप्त है तो,वह जगत भी बृहत ही होगा। जगत भी बृहत विशाल होगा। अब अपनी बुद्धि को, चिन्तन मार्ग में थोड़ी और भी अग्रसर करिए! विचार करिए! *यदि जगत को "ब्रह्म"से पृथक माना जाए तो, फिर ये भी विचार करना होगा कि - इस जगत का निर्माता कौन है!* *इसका तात्पर्य यह होगा कि - जो ब्रह्म व्याप्त है,उसकी व्याप्ति का आधार जगत है। यदि जगत नहीं रहेगा तो,व्यापक ब्रह्म भी नहीं रहेगा। इससे भी विचित्र वार्ता यह है कि - जगत का निर्माता भी,ब्रह्म का द्रष्टा होगा। उसने भी ये देखा होगा कि - ब्रह्म का आकार कितना है,उसके व्याप्त होने के लिए,उतना ही बृहत विशाल जगत बनाया जाए!* *यदि कोई, ब्रह्म की बृहत्ता का द्रष्टा होगा तो,ब्रह्म को अनन्त भी नहीं कह सकेंगे।* इसका तात्पर्य यह है कि -ब्रह्म और जगत को एक तत्त्व नहीं मानेंगे तो,ब्रह्म के लिए कहे गए,अनन्त,सत्य,आनन्द आदि स्वरूपपरक शब्द हैं,वे सभी निरर्थक हो जाएंगे। इसीलिए, *"ब्रह्मैव जगत्"* अर्थात ब्रह्म ही जगत है,तथा "जगदेव ब्रह्म" अर्थात जगत ही ब्रह्म है। *व्याप्य और व्यापकता का भावोपदेश तो,तभी तक सार्थक है,जबतक,ब्रह्म का या जगत का यथार्थ स्वरूप ज्ञात नहीं होता है।* *क्यों कि - शिष्य को सर्वप्रथम जगत के मिथ्या होने का उपदेश दिया जाता है, जिससे कि,उसे भोग्य योग्य विषयों से विरक्ति हो जाए। जब विरक्ति हो जाएगी तो, हृदय भी,विषयविनिर्मुक्त हो जाएगा। विषयविनिर्मुक्त हृदय में ही जगत ही ब्रह्ममय प्रतीत होती है। जगत और ब्रह्म के ऐक्यस्वरूप ज्ञान ही यथार्थ ज्ञान है।* *आचार्य ब्रजपाल शुक्ल वृंदावनधाम। 4-6-2024*
jai param pujay Gurudev ji jai param Vanadaniya Mata ji Shat Shat pranam
🌹🌹🌹🌹🌹
Jai gurudev
Jay Gurudev
Omjay matajiom
बहुत बहुत अच्छा
*ब्रह्म शब्द का पर्यायवाची शब्द ही,जगत शब्द है।*
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*योगवाशिष्ठ रामायण के, उत्पत्ति प्रकरण के,प्रथम अध्याय के,17 वें श्लोक में, वशिष्ठ जी ने, श्रीराम जी को,जगत शब्द को,ब्रह्म शब्द का पर्यायवाची शब्द बताते हुए कहा कि -*
*यथा कटक शब्दार्थ: पृथक्त्वार्हो न कांचनात्।*
*न हेमकटकात् तद्वत् जगच्छब्दार्थतापरे।।*
वशिष्ठ जी ने कहा कि - हे रघुनन्दन! जैसे,स्वर्ण से निर्मित *कटक अर्थात कंगन* आदि आभूषण, *कांचन अर्थात स्वर्ण* से पृथक नहीं कहा जाता है,स्वर्ण और कटक के ऐक्यस्वरूप के समान ही,जगत शब्द,ब्रह्म शब्द से पृथक नहीं कहा जा सकता है।
इसीलिए ब्रह्म और जगत, दोनों ही एक तत्त्व ही हैं। जगत को ही ब्रह्म कहते हैं, और ब्रह्म को ही जगत कहते हैं।
वास्तव में, *बृहत् अर्थात सबसे अधिक को ही"ब्रह्म" कहते हैं।* जगत की बृहत्ता ही ब्रह्म है। ब्रह्म,जिस जगत में व्यापक है,वह जगत भी ब्रह्म ही है।
आइए! सर्वप्रथम कटक के दृष्टान्त में,जगत के स्वरूप का ही विचार करते हैं।
*यथा कटक शब्दार्थ: पृथक्त्वार्हो न कांचनात्।।*
*शब्दार्थ अर्थात,जिस शब्द से,जिस पदार्थ के लिए कहा जाता है,वह पदार्थ ही उस शब्द का अर्थ कहा जाता है।*
*जैसे - वृक्ष,एक शब्द है। वृक्ष शब्द से कहा जानेवाला "मूल से लेकर,शाखावाली आकृति ही,वृक्ष शब्द का अर्थ है।*
इसी प्रकार,कटक शब्द का अर्थ एक,प्रकार का आकृतिवाला आभूषण है। वह कांचन अर्थात स्वर्ण से ही निर्मित होता है। इसीलिए,स्वर्ण का ही नाम,कटक है। जैसे - मृत्तिका से बनीं हुईं अनन्त वस्तुओं के नाम तो, अनन्त प्रकार के हो सकते हैं, किन्तु मृत्तिका से पृथक नहीं हो सकते हैं।
*ये तो हुआ दृष्टान्त,अब दार्ष्टान्त देखिए!*
*न हेमकटकात् तद्वत् जगच्छब्दार्थतापरे।*
*जैसे,हेम अर्थात सुवर्ण,कटक अर्थात सुवर्णाभूषण, इन दोनों को पृथक अर्थात भिन्न भिन्न जाति के नहीं कह सकते हैं।*
*जगच्छब्दार्थतापरे।*
*जगत, शब्दार्थतापर अर्थात जगत शब्द के अर्थ की जो अर्थता है,वही अर्थपरायण ब्रह्म,शब्द भी है।*
अब थोड़ी जगत शब्द से ब्रह्म शब्द की,अर्थ परता देखिए।
जब किसी विशाल आकार की वस्तु को,किसी में स्थित करना होता है, तो जिसमें स्थित करना है,वह भी विशाल आकार की ही वस्तु होगी।
जिस पात्र में, *हस्ती अर्थात हाथी* को बैठाना है तो,हाथी जैसे विशालकाय प्राणी को,बैठाने के लिए,वह पात्र भी विशाल ही होगा।
जिसको आप *"ब्रह्म अर्थात सर्वाधिक बृहत्,विशाल, कहते हैं,वह सर्वाधिक विशाल बृहत् ब्रह्म,जगत में व्याप्त है।* जिस जगत में,ब्रह्म व्याप्त है तो,वह जगत भी बृहत ही होगा। जगत भी बृहत विशाल होगा।
अब अपनी बुद्धि को, चिन्तन मार्ग में थोड़ी और भी अग्रसर करिए! विचार करिए!
*यदि जगत को "ब्रह्म"से पृथक माना जाए तो, फिर ये भी विचार करना होगा कि - इस जगत का निर्माता कौन है!*
*इसका तात्पर्य यह होगा कि - जो ब्रह्म व्याप्त है,उसकी व्याप्ति का आधार जगत है। यदि जगत नहीं रहेगा तो,व्यापक ब्रह्म भी नहीं रहेगा। इससे भी विचित्र वार्ता यह है कि - जगत का निर्माता भी,ब्रह्म का द्रष्टा होगा। उसने भी ये देखा होगा कि - ब्रह्म का आकार कितना है,उसके व्याप्त होने के लिए,उतना ही बृहत विशाल जगत बनाया जाए!*
*यदि कोई, ब्रह्म की बृहत्ता का द्रष्टा होगा तो,ब्रह्म को अनन्त भी नहीं कह सकेंगे।*
इसका तात्पर्य यह है कि -ब्रह्म और जगत को एक तत्त्व नहीं मानेंगे तो,ब्रह्म के लिए कहे गए,अनन्त,सत्य,आनन्द आदि स्वरूपपरक शब्द हैं,वे सभी निरर्थक हो जाएंगे।
इसीलिए, *"ब्रह्मैव जगत्"* अर्थात ब्रह्म ही जगत है,तथा "जगदेव ब्रह्म" अर्थात जगत ही ब्रह्म है।
*व्याप्य और व्यापकता का भावोपदेश तो,तभी तक सार्थक है,जबतक,ब्रह्म का या जगत का यथार्थ स्वरूप ज्ञात नहीं होता है।*
*क्यों कि - शिष्य को सर्वप्रथम जगत के मिथ्या होने का उपदेश दिया जाता है, जिससे कि,उसे भोग्य योग्य विषयों से विरक्ति हो जाए। जब विरक्ति हो जाएगी तो, हृदय भी,विषयविनिर्मुक्त हो जाएगा। विषयविनिर्मुक्त हृदय में ही जगत ही ब्रह्ममय प्रतीत होती है। जगत और ब्रह्म के ऐक्यस्वरूप ज्ञान ही यथार्थ ज्ञान है।*
*आचार्य ब्रजपाल शुक्ल वृंदावनधाम। 4-6-2024*