दीप जिस का महल्लात ही में जले (Dastoor)

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  • Опубліковано 14 жов 2024
  • दीप जिस का महल्लात ही में जले
    चंद लोगों की ख़ुशियों को ले कर चले
    वो जो साए में हर मस्लहत के पले
    ऐसे दस्तूर को सुब्ह-ए-बे-नूर को
    मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
    मैं भी ख़ाइफ़ नहीं तख़्ता-ए-दार से
    मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़्यार से
    क्यूँ डराते हो ज़िंदाँ की दीवार से
    ज़ुल्म की बात को जहल की रात को
    मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
    फूल शाख़ों पे खिलने लगे तुम कहो
    जाम रिंदों को मिलने लगे तुम कहो
    चाक सीनों के सिलने लगे तुम कहो
    इस खुले झूट को ज़ेहन की लूट को
    मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
    तुम ने लूटा है सदियों हमारा सुकूँ
    अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फ़ुसूँ
    चारागर दर्दमंदों के बनते हो क्यूँ
    तुम नहीं चारागर कोई माने मगर
    मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

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